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कर्मग्रन्थ भाग चार
(१)मा:-असंख्या को अरे वापिणी हे हिम्ने समय होते हैं, मनुष्य अधिक से अधिक उतने पाये जा सकते हैं।
(२) क्षेत्र:-सात' रज्जु-प्रमाण घनीकृत लोक की अङ्ग लमान बुधि-गि के प्ररेषों के तीसरे वर्गमूल' को उन्हीं के प्रथम वर्गमूल के साय गणना, गणने पर जो संख्या प्राप्त हो, उसका संपूर्ण सूचि-श्रेणि-गत प्रदेशों में भाग देना, भाग वेने पर जो संख्या लष होती है, एक-कम वही संख्या मनुष्यों को उत्कृष्ट संख्या है। गह संख्या, अङ्गलमात्र सूचि-श्रणि के प्रवेश की संख्या, उनके तीसरे गमूल और प्रथम वर्गमूल की संख्या तथा संपूर्ण सूचि-णि के प्रवेशों की संख्या वस्तुतः अमंल्यात हो है, तथापि उक्त भाग--विषि से मनुष्यों की जो उत्कृष्ट संख्या विखायी गयी है, उसका कुछ ज्याल आने के लिये कल्पना करके इस प्रकार समझाया जा सकता है।
मान लीजिये कि संपूर्ण सूचि-श्रेणि के प्रवेश ३२०० ००० हैं और अलग मात्र सधि-णि के प्रदेश २५६ । २५६ का प्रथम वर्गमूल १६ और तीसरा वर्गमूल २ होता है। तीसरे वर्गमूल के साय, प्रथम वर्गमूल को गणने से ३२ होते हैं. ३२ का ३२०1000 में भाग वेने पर १००००० लब्ध होते हैं। इनमें से १ कम कर देने पर, शेष बचे ६६EE: । कल्पनानुसार यह संख्या, जो वस्तुतः असंख्यातरूप है, उसे मनुष्यों को उत्कृष्ट संख्या समानी चाहिये।
"सुहमो य होइ कालो, तत्तो सुहमयरं वइ खितं । अगलसेठीमित्तै, ओसप्पिणीउ असंखेना ॥३७।।"
-आवश्यक-नियुक्ति, पृ० ३१ । १-ज, घनीकृत लोक. सधि श्रेणि और प्रतर आदि का स्वरूप पांचवें मर्मग्रन्थ की ७वी गाथा से जान लेना चाहिये ।
२-जिम संख्या का वर्ग किया जाय, वह संख्या उग वर्ग का वर्ग
३- मनुष्य की यही संख्या इसी रीसि से गोम्मट सार-जीवकाण्ड की १५६ वी गाथा में बतलाया है ।