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कर्मप्रन्य भाग चार
इनको छोड़कर शेष इकतालीस मार्गगानों में यहीं सेहयाएँ पायी जाती हैं। मेव मार्गणाएं मे हैं :
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१ देवगति १ मनुष्यगति, १ तिर्यञ्चगति, १ पञ्चेन्द्रियजाति, १ सकाय, ३ योग, ३ मे ४ कवाय, ४ ज्ञान ( मति आदि ), ३ अज्ञान, ३ चारित्र ( सामायिक, छेलोपस्थापनीय और परिहारबिशुद्ध ) १ देशविरति १ अविरति ३ दर्शन, १ सम्पत्व, १ अव्यश्व ३ सम्यक्त्व ( कि, क्षयोपशमिक और औपश्रमिक ), बन, १ सम्यमध्यास्य १ मिच्णात्व, १ सझिम १ पारख और १ अनाहारकत्व, कुल ४१ ।
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१ सासा
[मनुष्यों, नारकों देवों और तिर्यक्वों का परस्पर अल्प-बहु आदि की ऊपर कहा गया है, उसे ठीक-ठीक समझने के लिये मनुष्य संख्याशास्त्रोक्त' रीति के अनुसार दिखायी जाती है ]:
मनुष्य, अक्षम्य उन्तीस अङ्क-प्रमाण और उत्कृष्ट, असंख्यात होते हैं।
( क ) जघन्यः – मनुष्यों के गर्भज और संमून्छिन, ये बो में हैं इनमें से संमूच्छिम मनुष्य किसी समय बिलकुल ही नहीं रहते, केवल गर्भन रहते हैं । इसका कारण यह है कि संमूमि मनुष्यों की आयु, अन्तर्मुहूतं प्रमाण होती है । जिस समय संमूमि मनुष्योंकी उत्पत्ति में एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक समय का अन्तर पड़ जाता है, उस समय, पहले के उत्पन्न हुए सभी संमूच्छिम मनुष्य मर चुकते हैं। इस प्रकार नये संमूमि मनुष्यों की उत्पत्ति न होने के समय तथा पहले उत्पन्न हुए सभी संमूच्छिम मनुष्यों के मर चुकने पर, गर्भम मनुष्य ही रह जाते हैं, जो कम से कम नीचे-लिखे उन्तीस अजूों के बराबर होते हैं । इसलिये मनुष्यों की कम से कम यही संख्या हुई ।
१ – अनुयोगवार, १० २०५ – २३८ ।