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कर्मग्रन्थ भाग चार
१७वीं गाथा में मनोयोग में सिर्फ पर्याप्त संजी जीवस्थान माना है, सो वर्तमान-मनोयोग बालों को मनोयोगी मानकर । इस गाथा में मनोयोग में अपर्याप्त-पर्याप्त संनि-पन्धेन्द्रिय वो जीप स्थान माने हैं, सी वर्तमान-भाबी उमप मनोयोग बालों को मनोयोगी मानकर । मनोयोग सम्बम्पी गुगस्पान, योग और उपयोग के सम्बन्ध में कम से २२, २८, ३१वीं गाथा का जो मरतम्य है, इस जगह भी यही है। तथापि फिर से उल्लेख करने का मतलब सिर्फ मतान्तर को दिखामा है । मो. योग में जीवस्थान और योग विचारने में विषक्षा भिन्न-भिन्न की गयी है। जैसे--भागो मनोयोग वाले अपर्याप्त संनि-पञ्चेन्द्रिय को भी मनोयोगी भागार उसे मनोगोर में सिनः ! पर सोम के विषय में ऐसा नहीं किया है । जो योग मनोयोग के समकालीन हैं, उन्हीं को ममोयोग में गिना है। इसी से उसमें कामण और औदारिफमिश्र, ये हो योग नहीं गिमे हैं।
पवनयोग में जीवस्थान कहे गये हैं। वे ये हैं:-द्वीन्द्रिय, प्रोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असति-पञ्चेन्द्रिय, ये चार पर्याप्त सथा अपर्याप्त । इस जगह वचनयोग, मनोयोग रहित लिया गया है, सो इन आठ जीवस्थानों में हो पाया जाता है। १७वीं गाथा में सामान्य वचनयोग लिया गया है । इसलिये उस गाथा में बननयोग में संक्षि पञ्चे. निद्रय बीमाधान मो गिमा गया है। सके सिवाय यह भी भिन्नता है कि उस गाथा में वर्तमान वचनयोग वाले हो वचनयोग के स्वामी विवक्षित है। पर इस गाथा में पर्तमान को तरह भावी वचनयोग वाले भी बचनयोग के स्वामी माने गये हैं। इसी कारण वचनयोग में बही पांच और यहां आठ जोषस्थान गिने गये हैं।
वधनयोग में पहला, दूसरा वो गुणस्थान, औदारिक, औवारिकमिश्र, कार्मण और असल्यामुषायवन, ये चार योग; तथा मतिअज्ञान: अत-अनाम, चीन मौर अत्रभुवंर्शन, ये चार उपयोग है।