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कर्मग्रन्थ भाग चार
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२२, २८ और ३१वीं गाथा में अनुक्रम से बचनयोग तेरह गुणस्थान, तेरह योग और बारह उपयोग माने गये हैं। इस भिन्नताका कारण नही है । अर्थात् वह वचनयोग सामान्यमात्र लिया गया है, पर इस गाया में विशेष— मनोयोग रहित । पूर्व में वचनयोग में समकालीन योग विवक्षित है इसलिये उसमें कार्बन- हारमिश्रये वो अपर्याप्त अवस्था भावी योग नहीं गिने गये हैं। परन्तु इस योग है। कारण और श्रीदारिमिश्र, अपर्याप्त अवस्था भावी होने के कारण, पर्याप्त अवस्था- मावी वचन योग के असम-कालीन है तथापि उक्त यो योग वालों को मजिध्यत् में वचनयोग होता है। इस कारण उसमें ये दो योग गिले गये है।
काययोग में सूक्ष्म और बम्बर मे दो पर्याप्त तथा अपर्याप्त फुल चार जीवस्थान, पहला और दूसरा हो गुणस्थान, औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रिय, क्रियमिश्र और कार्मण, ये पांच योग तथा महि-अज्ञानश्रुत- अज्ञान और भवन मे तीन उपयोग समझने चाहिये । १६, २२, २५ और ३६वीं गाया में चौवह जीवस्थान, तेरह गुणस्थान, पन्द्रह योग और बारह उपयोग, काययोग में बतलाये गये हैं । इस मत-मेज का तात्पर्य भी ऊपर के कथनानुसार है। अर्थात् यहाँ सामान्य काययोग को लेकर जोवस्थान आदि का विचार किया गया है. पर इस जगह विशेष । अर्थात् मनोयोग और वचनयोग, उनपर हित काययोग, जो एकेन्द्रिय मात्र में पाया जाता है, उसे लेकर ||३५||