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कर्मग्रन्थ-भाग चार
जिसको अवधिज्ञान या केवली भगवा
मनः पर्यायज्ञान के द्वारा देखकर प्रश्नकर्ता हुए उत्तर को अनुमान द्वारा जान लेते हैं । यद्यपि मनोद्रव्य बहुत सूक्ष्म है तथापि अवधिज्ञान और मनः पर्याय ज्ञान में उसका प्रत्यक्ष ज्ञान कर लेने की शक्ति है। जैसे कोई मानसशास्त्र किसी के चेहरे पर होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों को देखकर उसके मनोगत-भाव को अनुमान द्वारा जान लेता है, वैसे ही अवधिज्ञानी या मनः पर्यायज्ञानी मनोनय को रचना को साक्षात् देखकर अनुमानद्वारा यह जान लेते हैं कि इस प्रकार को मनो-रचना के द्वारा अमुक अर्थ का ही चिन्तन किया हुआ होना चाहिये ||२८||
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मणवइउरला परिहा, रिसुहुमि नवते उमीसि सविउव्वा । देसे सगा सकम्मुरलमीत अहखाए ॥२६॥ मनांत्रच औदारिकाणि परिहारे सुक्ष्म नव ते तु मिश्र सक्रियाः । देशे सर्व क्रियद्विकाः, सकार्मणौदारिकमिश्राः यथाहपाते ||२६|
दस योग होते
अर्थ- परिहारविशुद्ध और सूक्ष्मसम्परायचारित्र में मन के चार, aat के चार और एक औदारिक, ये नौ योग होते हैं । मिश्र में ( सम्यग्मिथ्याष्टि में ) उक्त नौ तथा एक वैक्रिय, फुल है । देशविरति में उक्त नौ तथा वैक्रिय-द्विक, कुल होते हैं । यथाश्यातचारित्र में चार मनके, चार वचन के कार्मण और औदारिक-द्विक, ये ग्यारह योग होते हैं ||२६||
ग्यारह योग
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भावार्थ - कार्मण और औदारिक मिश्र, ये वो योग छास्थ के लिये अपर्याप्त अवस्था भावी हैं, किन्तु चारित्र कोई भी अपर्याप्तअवस्था में नहीं होता। वैक्रिय और बेक्क्रियमिश्र, ये वो योग ि
धि का प्रयोग करने वाले ही मनुष्य को होते हैं । परन्तु परिहारविशुद्ध या सूक्ष्मसम्पराय चारित्र वाला कभी बेलिब्धि का प्रयोग नहीं करता । आहारक और आहारकमिश्र, ये वो योग चतुर्दश