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कमंग्राय भाग चार
सास्वाममार्गणा में ज्ञान नहीं माना है, सो कार्मपन्थिक मत के अनुसार समारना चाहिये ॥ ३२ ॥
केवलगे भियगं, नव तिअनाण विणु खइयअहखाये । बंसगनाणसिंग वे,-सि मीसि अनाणमीसं तं ।। ३३ ।।
केवलतिके निजहिक, नव व्यशानं विना क्षायिकयथास्पाते ।
दर्शनशानत्रिक देणे मिश्रेज्ञानपि तत् ॥३३॥ ____ अर्थ-केवल-तिक में निज-तिक (केवलशान और केवमर्शम) दो ही उपयोग है । क्षापिकसम्यक्तव और यथाख्यातचारित्र में तीन समान जोगा शेष नौ सयोग होते हैं : दिनति में तीन जान और तीन बर्शन, ये वह उपयोग होते हैं । मिश्र-ष्टि में बही उपयोग महान-मिभित होते हैं ।।३३
भावार्म-केवल-तिक में केवलमान और केवलदर्शन दो हो उपयोग माने जाने का कारण यह है कि मतिज्ञान माधि शेष बस बास्पिक उपयोग, केवली को नहीं होते।
सायिकसम्परूप के समय, मिभ्यारव का अभाव ही होता है । यधारमातचारित्र के समय, ग्यारहवें गुणस्थान में मिथ्यारव भी है। पर सिर्फ सत्तागत, उदयमान नहीं; इस कारण इन दो मागंगाओं में मिप्यास्पोरम-सहमाची तीन महान नहीं होते । शेष नौ उपयोग होते हैं। सो इस प्रकार:- उपत वो मार्गमाओं में छवास्थअवस्था में पहले चार शाम तथा तीन वर्शन, ये सात उपयोग और फेवलि-अवस्था में केवलशाम और केवसरदर्शन, ये दो उपयोग।
देशाविरति में, मिथ्यात्व का उपय न होने के कारण तीन अज्ञान नहीं होते मोर सर्वविरतिको अपेक्षा रखने वाले ममःपर्यायका और
१-याही मत गोम्मटसार-जीवकाण्ड की ७०४त्री माथा में उल्लिखित है।