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कर्मग्रन्थ भाग चार
केवल-निक, ये तीन उपयोग भी नहीं होते। शेष पह होते हैं। छह में अवषि-विकका परिगणन इसलिये किया गया है कि प्रावकों को अवधिउपयोग का वर्णन, शास्त्र में मिलता है।
मिश्र-रष्टि में छह उपयोग नहीं होते हैं, 'यो निर में; पर विशेषता इतनी है कि मिश्र-ष्टि में तीन शान, मिक्षित होते हैं, शुद्ध नहीं अर्थात् मतिज्ञान, मति-अज्ञान-मिथित, तमान, भुतअज्ञान-मिश्रित और अवधिमान, विमङ्गज्ञान-मिश्रित होता है। मिश्रितता इसलिये मानी जाती है कि मिश्र-रष्टिमुणस्थान के समय भई-विशुद्ध बनिमोहमीय-पुस का उज्य होने के कारण परिणाम कुछ शुद्ध और कुछ अशुद्ध अर्थात् मिल होते हैं । शुद्धि को अपेक्षा से मति आदि को नाम मोर अशुद्ध की अपेक्षा से शाम कहा जाता हैं।
गुणस्थान में अवधिवशेन का सम्बन्ध मिधारने वाले कामंम्पिक पक्ष रो है । पहला घोथै आदि मी गुणस्थानों में अवपिन मामता है, जो २१वी गा० में निर्दिष्ट है । दूसरा पक्ष, तीसरे गुणस्मान में सो अवधिदर्शन मानता है, जो ४८वों गाथा में निहिष्ट है। इस जगह दूसरे पक्ष को लेकर ही मिश्र-टि के उपयोगों में अवषिवर्शन गिना है ।। ३३ ॥
मणनाणचक्खुवज्जा, अणहारि तिन्नि दसण नऊ नाथा । चउनाणसंचमोवस,-मवेयगे ओहिदसे य ॥ ३४ ॥
मनोशानचक्षुर्जा अनाहारे त्रीणि वर्शनानि चत्वारि ज्ञानानि । चतुर्शानसंयमोपशमवेदकेऽवधिदर्शनने च ।।३४॥
अर्थ -अनाहारकमार्गणा में ममःपर्यापमान और चमन को छोड़कर, शेष दस उपयोग होते हैं। बार जाम, चार संयम, उप
१-जैसे:-श्रीयुत् धनपतिसिंह जी द्वारा मुद्रिस उपासकवशा पृ०७०।
२-गोम्मटसार में यही बात मानी हुई है । देखिये, जीवकाण्ड की गाथा ७०४।