Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग चार
चतुरिन्द्रियासंशिनि दुयज्ञानदर्शन मेकदित्रिस्थायरचः । । । न्यज्ञानं दर्शगाद्वितमज्ञानत्रिकामव्य मिथ्यात्वहिके ॥ ३२ ॥
अर्थ--चतुरिन्द्रिय और असंजि-पच्नेन्द्रिय में मति और श्रुत दो मज्ञान तथा चक्षुः और अचक्षुः यो वर्शन, कुल चार उपयोग होते हैं । एकेन्द्रिय, हीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और पाँच प्रकार के स्थावर में उक्त चार में से चक्षुर्दर्शन के सिवाय, शेष तीन उपयोग होते हैं। तीन अशान, अभय, और मिथ्यात्व-विक ( मिथ्यात्व सथा सरसादन ), इन छह मार्गणाओं में तीन अज्ञान और दो वर्शन कुल पाँच उपयोग होते हैं । ।।
मावार्थ-चतुरिन्द्रिय और असंशि-पम्चेन्द्रिय में विभङ्गलान प्राप्त करने की योग्यता नहीं है तथा उनमें सम्यक्त्व न होने के कारण, सम्यतब के सहचारी पांच ज्ञान और अवधि और केवल दो वर्शन, ये सास उपयोग नहीं होते, इस तरह कुल आर के सिशय शेष चार उपयोग होते हैं।
एकेन्द्रिय आदि उपर्युक्त भाठ मार्गणाओं में मेत्र न होने के कारग चक्षदर्शन और सम्यक्तव न होने के कारण पाँच जान तथा अवषि और फेवल, ये दो दर्शन और तथाविध योग्यता न होने के कारण विमङ्गशान, इस तरह कुल नौ उपयोग नहीं होते, शेष तीन होते है।
__ अजान-त्रिक आदि उपयुक्त छह मागणाओं में सम्यक्तन: तथा विरति नहीं है। इसलिये उनमें पांच शान और अवधि केवल, ये वो वर्शन, इन मात के सिवाय शेष पाँच उपयोग होते हैं। .
सिद्धान्ती, विभङ्गमानी में अधिवशंन मानसे हैं और सास्वावनगुणस्थान में अज्ञाम न मानका मान ही मानते हैं। इसलिये इस माह अज्ञान-त्रिक आदि छह मार्गणाओं में अवधिदर्शन नहीं माना है और
– खुलासे के लिये २१वीं तथा ४६वी गाथा का टिप्पण देखना चाहिये ।