Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग पार
१०५
(४)-मार्गणाओं में उपयोग ।
[ छह गाथाओं से]
तिअनाण नाण पण च ३, सण बार जियलक्षणवओगा। विणु मणनाणदुकेवल, नव सुरतिरिनिरयअजएसु ॥३०॥
पीण्यज्ञानानि मामानि पञ्च चत्वारि,दर्शनानि द्वादश जीवलमणमुपयोगाः । विना ममोज्ञानदिकेवल नव सुरतिर्मनिरयायतेषु ॥३०॥
अर्थ--तीम अमान- पांच शान और चार बर्षन ये बारह उपयोग हैं, जो जीव के लक्षण है। इनमें से मातः पर्याय काम और केवल-निक. इन तीन के सिवाय शेष नो उपयोग वेबगति, तिर्यन्वगति, नरकति और अविरत में पाये जाते हैं ॥३०॥
मावार्थ - किसी वस्तु का लक्षण, उसका असाधारण धर्म है। क्योंकि सक्षग का उद्देश्य, लक्ष्य को आय वस्तुओं से भिन्न बतलामा है। जो असाधारण धर्म में ही घट सकता है। उपयोग, मीच के असावारण (खास) धर्म हैं और अजीब से उसको भिमता को बरसाते हैं। इसी कारण ये जीप के लक्षण कहे जाते हैं।
मनः पर्याय और केवल-दिक, ये तीन उपयोग सर्वविरति-सापेक्ष हैं। परन्तु वेवति, तिच्चगति, नरकगति और अविरति, इन बार मार्गणाओं में सर्वविरति का संभव नहीं है। इस कारण इसमें तीन उपयोगों को छोड़कर शेष नौ उपयोग माने जाते हैं।
अविरति वालों में से शुद्ध सम्यक्रवो को तीन मान, तीन दर्शन ये छह उपपोग और शेष सबको तीन अज्ञान और दो दर्शन, ये पौष उपयोग समझने चाहिये ॥३०॥