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कर्मग्रन्य भाग चार
पूर्व-धर प्रमत्त मुनि को हो होते हैं। किन्तु परिहारविशुद्ध चारित्र का अधिकारी कुछ-कम दस पूर्व का हो पाटो होता है और सूक्ष्मसंपरायचारित्र वाला प्रतुवर्श-पूर्व-घर होने पर भी अपमत ही होता है; इस कारण परिहार विशुद्ध और सूक्ष्मसंपराय में कार्मण, औवारिकमिश्र, बैंक्रिय, वैकिमिश्र, आहारक और आहारक मिश्र, ये छह योग नहीं होते, शेष नौ होते हैं।
मिश्रसम्यक्त्व के समय मृत्यु नहीं होती । इस कारण अपर्याप्तअवस्था में वह सम्यक्त्व नहीं पाया जाता इसीसे उसमें फार्मणऔदारिक मिथ और वैक्रियमिश्र , ये अपरिस-अवस्था-भावी तीन योग नहीं होते । तथा मिनसम्मक्त्व के समय चौदह पूर्व के ज्ञान का संभव न होने के कारण वो आहारकयोग नहीं होसे । इस प्रकार कार्मण आदि उक्त पांच योगों को छोड़कर शेष इस योग मिश्रसम्यक्रम में होते हैं।
इस मगह यह शङ्का होती है कि मिथसम्यक्त्व में अपर्याप्त-अवस्था-भावी चंशियमिश्र योग नहीं माना जाता, सो तो ठीक है। परन्तु वैनियलब्धि का प्रयोग करते समय मनुष्य और तिबंधको पर्याप्त-अवस्था में जो क्रियमिश्र योग होता है, वह मिश्रसम्यवश्व में क्यों नहीं माना जाता ? इसका समाधान इतना ही दिया जाता है कि मिथसम्यक्त्व और लब्धि-जन्य बकिमिश्नयोगः ये दोनों पर्याप्तअवस्था-भाषी हैं। किन्तु इनका साहचर्य नहीं होता । अर्थात् मिश्रसम्यक्त्व के समय सन्धि का प्रयोग न किये जाने के कारण वक्रिय| मिश्र काययोग नहीं होता।
व्रतधारी प्रावक, चतुर्वश-पूर्वी और अपर्याप्त नहीं होता। इस कारण देशविरति में दो आहारक और अपर्याप्त-अवस्था-भावी कार्मण और औवारिकमिश्न, इन चार के सिवाय शेष ग्यारह योग माने जाते हैं । ग्यारहमें वैक्रिय और क्रियमिश्र, ये वो योग गिने गए हैं।