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कर्मग्रन्थ भाग चार
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कार्मण तथा औदारिकमिश्रको को छोड़कर तेरह योग होते हैं। केवल द्विकमें अवारिक विक, कार्मण, प्रथम तथा अन्तिम मनोयोग (सत्य तथा असत्यामुषामनोयोग ) और प्रथम तथा अन्तिम वचनयोग (सत्य तथा असत्याभूषावचनयोग) ये सात योग होते हैं ॥२८॥ भावार्थ- मनोयोग आदि उपर्युक्त छह मार्गणाएं पर्याप्त मवस्था में ही पायी जाती हैं । इसलिये इनमें कार्मण तथा औदारिकमिश्र, ये अपर्याप्त अवस्था भावी दो योग नहीं होते । केवली को केवलिमुद्धात में ये योग होते हैं इसलिये यद्यपि पर्याप्त-अबस्था में भी इनका संभव है तथापि यह जानना चाहिये कि केवलसमुद्धतमें जब कि ये योग होते हैं, मनोयोग आदि उपर्युक्त छह में से कोई भी मार्गणा नहीं होती) इससे इन छह मार्गणाओं में उक्त दो योग के सिवाय, शेष कहे
हैं।
केवल द्विकमें औदारिक-टिक आदि सात योग कहे गये हैं, सो इस प्रकार : - योगी केवली को, औबारिककाययोग सदा ही रहता है; सिर्फ केवलिसमुद्धात के मध्यवर्ती छह समयों में नहीं होता । अवारिक मिश्र काययोग केवलिसमुखात के दूसरे, छठे और सातवें समय में तथा कार्मण काययोग तीसरे, चौथे और पांचवें समय में होता है । म्रो वचनयोग, देशना देने के समय होते हैं और दो मनोयोग किसो के प्रश्न का मन से उत्तर देने के समय मन से उत्तर देने का मतलब यह है कि जब कोई अनुत्तरविमानवासी देव या मन पर्यायज्ञानी अपने स्थान में रहकर मनसे ही केवली को प्रसन्न करते हैं, तब उनके प्रसन्न को केवलज्ञान से जानकर केवली भगवान् उसका उत्तर मनसे ही देते हैं । अर्थात् मनोव्य को ग्रहणकर उसकी ऐसी रचना करते हैं कि
२ - देखिये, परिशिष्ट 'थ ।'
२ - गोम्मटसार-जीवकाण्ड की २२८वों गाथा में भी केवली को द्रव्य मन का सम्बन्ध माना है ।