Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग चार
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उपनामसम्यक्तव में चार मन के, चार वचन के, औवारिक और वैषिय, ये दस योग पर्याप्त अवस्था में पाये जाते है । कार्मण और मंक्रियमिश्र, ये दो योग अपर्याप्त अवस्था में देवों की अपेक्षा से समझने चाहिये क्योंकि जिनका यह मत है कि उपशमणि से गिरनेवाले जोश मरकर अनुत्तर विमान में उपशमसम्यक्तव सहित जन्म लेते हैं, उनके मत से अपर्याप्त देवो में उपशमसम्यक्तव के समय उक्त योगों योग पाये जाते हैं । उपशमसम्यक्त्व में औदारिम मिश्रयोग दिया है, सो सैद्धान्तिक मत के अनुसार, कार्मग्रन्थिक मत के अनुसार नहीं क्योंकि फार्मप्रस्थिक मत से पर्याप्त अवस्था में फेमली के सिवाय अन्य किसी को यह योग नहीं होता। अपर्याप्त अवस्था में मनुष्य तथा तिर्यञ्च को होता है सही पर उन्हें उस अवस्था में किसी तरह का उपशमसम्यक्त नहीं होता । संद्धान्तिक मत से उपशमसम्यक्स्व में औदारिकमिश्रयोग घट सकता है; क्योंकि सैद्धान्तिक विद्वान् क्रियशरीर की रचना के समय वक्रियमिश्रयोग न मानकर औवारिक मिश्र योग मानते हैं; इसलिये यह योग, प्रन्यि-मेव-जन्य उपशमसम्यरूष वाले वैक्रियसब्धि-संपत्र मनुष्य में वैक्रिथशरीर की रचना के समय पाया जा सकता है ।
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देवगति और नरकगति में विरति न सम्भव नहीं है तथा औदारिकशरीर न होने संभव नहीं है। इसलिये इन चार योगों के उक्त दो गतियों में कहे गये हैं; सो चाहिये ॥ २६ ॥
१ - यह मत स्वयं ग्रन्धकारने ही आगे की ४६ वीं गाया में इस अंश
से निर्दिष्ट किया है
होने से हो व्यहारकयोगों का से वो श्रीदारिकयोगों का सिवाय शेष ग्यारह योग यथासम्भव विचार लेमा
"विगाहार उरलमिस्सं "