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कर्मग्रन्थ माग चार
तिर्थञ्चगति में तेरह योग कहे गये हैं। इनमें से चार मनोयोग, धार वननयोग और एक ओवारिककाययोग. इस तरह से ये नो योग पर्याप्त. अवस्था में होते हैं। बैंक्रियकापयोग और वैक्रियमिश्रकाययोग पर्याप्तअवस्था में होते हैं सही; पर सव तियंञ्चों को नहीं; किन्तु बैंक्रिया wo मे बल से मिमीर घनाने पाले कुछ निर्गों को हो । कार्मण और औारिकमिश्र, ये दो योग, तिर्यञ्चों को अपर्याप्त-अवस्था में ही होते हैं।
स्त्रीवेव' में तेरह योगों का संभव इस प्रकार है:--मन के चार वचन के चार, दो पंक्रिय और एक औदारिक, ये ग्यारह योग मनुष्य-तिर्यञ्च-स्त्री को पर्याप्त अवस्था में, क्रियमिश्रकाययोग देवस्त्री को अपर्याप्त-अवस्था में, औदारिकमिश्रकाययोग मनुष्य-तिर्यस्त्री को अपर्याप्त-अवस्था में और कामंणकाययोग पर्याप्त मनुष्यस्त्री को केवलिसमुद्धात-अवस्था में होता है।
अधिरति, सम्पष्टि, सास्वावन, तीन अज्ञान, अभव्य और मिथ्यात्व, इन सात मार्गणाओं में मार मन के, चार वचन के, औवारिक और वैक्रिय, ये दस योग पर्याप्त-अवस्था में होते हैं। कार्मणकाययोग विवाहपसि में तथा उत्पत्ति के प्रथम क्षण में होता है । औदारिफमिन और वैनियमिश्र, ये दो योग अपर्याप्त-अवस्था में होते है।
१-स्त्रीवेद का मतलब इस जगह द्रव्यस्त्रीवेद से ही है । क्योंकि उसी में आहारकयोग का अभाव घट सकता है । भावस्त्रीवेद में तो आहारकयोग का संभव है अर्थात् जो द्रव्य से पुरुष होकर भावस्त्रोवेद का अनुभान करता है, वह भी आहारकयोग वाला होता है । इसी तरह आगे उपयोगाधिकार में जहां वेद म बारह उपयोग कहे हैं, वहाँ भी वेद का मतलब द्रव्यवेद से ही है। क्योंकि क्षायिक-उपयोग भाघवेदर हितको ही होते हैं, इसलिये भाववेद में बारह उपयोग नहीं घट सकते । इससे उलटा, गुणस्थान-अधिकार में वेद का मतलब भावद से ही है। क्योकि वेद में नौ गु प्रस्थान कहे हुए हैं, सो भाववेद में ही घट सकते हैं, द्रव्यवेद तो चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त रहता है ।