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कर्मग्रन्थ भाग चार
पुबगल ही साधन होते हैं। इसलिये उस समय, कार्मणकाययोग माननेकी जरूरत नहीं है । ऐसी वाङ्का करना व्यर्थ है। क्योंकि प्रथम समय में, आहाररुप से ग्रहण किये हुए पुग्ल उसी समय शरीररुप में परिणत होकर चूसरे समप में आहार लेने में साधन बन सकते है, पर अपने प्रण में आप साधन नहीं बन सकते ।।२।।
तिरिस्थिअजयसासण,-अनाणउवसमअभध्वमिच्छेसु । तेराहारदुगुणा, ते उरलदुगूण सुरनरए ॥२६॥ तिर्यवत्र्ययत सासादनाशानोपशमाभयमिथ्यात्धेषु अयोदशाहार कदिकोनास्त औदारिकाद्वकोनाः सुरेनरक ॥२६।।
अर्थ तिर्थचमति, स्त्रीवेद, अविरति, सास्वादन, तीन अज्ञान, उपशामसम्यकत्व, अभव्य और मिथ्यात्व, इन दस मार्गणाओं में आहारक--द्विकके सिवाय तेरह योग होते हैं। देवगति और नरकगति में उक्त तेरह में से औदारिक-द्विकके सिवाय शेष ग्यारह योग होते है ॥२६॥
भावार्थ-तिर्यंचति आदि उपयुंक्त बस मागंणामों में आहारक-तिकके सिवाय शेष सब योग होते हैं । इनमें से स्त्रीवेद और उपशमसम्यवरष को छोड़कर शेष आठ मार्गणाओं में आहारफयोग न होने का कारण सर्वविरतिका अभाव ही है। स्त्रीवेव में सर्वविरतिका संभव होने पर भो आहारकयोग न होने का कारण स्त्री जाति को रष्टिबाव-जिसमें चौवह पूर्व है....पढ़ने का निषेध है। उपशमसम्यबत्व में सर्वविरतिका संभव है तथापि उसमें आहारक योग न मानने का कारण यह है कि उपशमसम्यवस्वी आहारकनधि का प्रयोग नहीं करते।
१ देखिये, परिशिष्ट 'त।'