Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग चार
ग्रहण करने के लिये जब एक स्थान से दुसरे स्थान को जाता है, तम वह ! सो शरीर से वेष्टित रहता है । यह शरीर इतना सूक्ष्म है कि वाह रुपवाला होने पर भी नेत्र मावि इन्द्रियों का विषय बन नहीं सकता । इसी शरीर को वसरे वार्शनिक ग्रन्थों में 'सूक्ष्मशरीर' या 'लिङ्गशरोर'
___ यद्यपि तेजस नाम का एक और भी शारीर माना गया है, जो कि खाये हुए आहार को पचाता है और विशिष्ट लम्पि-धारी तपस्वी, जिसकी सहायता से तेजोलेश्या का प्रयोग करते हैं । इसलिये यह शङ्का हो सकती है कि फार्मणकाययोग के समान तंजसकाययोग भी मानना आवश्यक है।
इस शङ्क का समाधान यह है कि तेजसशरीर और फार्मणारीरका सबा साहचर्य रहता है। अर्थात् औदारिक आवि अन्य शरीर. कभी-कभी कार्मणशरीर को छोड़ भी देते हैं। पर तेजसशरीर उसे कभी नहीं छोड़ना । इसलिये वीर्य-शक्ति का जो व्यापार, कार्मणशरीर के द्वारा होता है, वही नियम से तेजस शरीर के द्वारा भी होता रहता है । अत: कामणकाय योग में ही तेजसकाययोग का समावेश हो आता है। इसलिये उसको जुदा नहीं गिना है ।
आठ मार्गणाओं में योग का विचार:---- ऊपर जिन पन्द्रह योगों का विचार किया गया है उनमें से कार्मण काययोग ही ऐसा है, जो अनाहारक-अयस्पा में पाया जाता है । शेष बौदह योग, आहारक अवस्था में ही होते हैं । यह नियम नहीं है कि अमाहारक-अवस्था में कामणकाययोग होता ही है। क्योंकि चौरहवें गुणस्थान में अनाहारक-अवस्था होने पर भी किसी तरह का १--' उक्तस्य सूक्ष्मशारीरस्य स्वरूपमाह--"सप्तदर्शक लिङ्गम् ।।
.-साख्य दर्शन-अ० ३, सू० । ।