Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग चार
(४) 'आहारकमिथकाय योग' वीर्य-शक्ति का यह व्यापार है, जो आहारक और औदारिक, इन दो शरोरों के द्वारा होता है। आहारक शरीर धारण करने के समय, आहारकशरीर और उसका आरम्मपरित्याग करने के समय आहारकमिश्रकाययोग होता हैं। अतुर्दशपूर्वधर मुनि, संशय दूर करने, किसी सूक्ष्म विषय को जानने अथवा समृद्धि देखने के निमित्त, दूसरे क्षेत्र में तीर्थर के पास जाने के लिये विशिष्ट-लब्धि के द्वारा आहारफशरीर बनाते हैं ।
(५) औचारिककाययोग, बोर्य-शक्ति का वह व्यापार है, जो सिर्फ औदारिक शारीर से होता है । यह योग, सब औदारिकशरीरी जोयों को पर्याप्त-दशा में होता है । जिस शरीर को तीर्थङ्कर आदि महान पुरुष धारण करते हैं, जिससे मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, जिसके बनने में मिडी के समान थोड़े पुव ग्लों की आवश्यकता होती है और जो मांस-हल्ली और नस आधि अवयवों से बना होता है, यही शरीर, 'औदारिक' कहलाता है।
(६) वीर्य-शक्ति का जो व्यापार, औदारिक और कार्मण इन दोनों शरीरों की सहायता से होता है, वह 'औचारिकमिश्रकायोग' है । यह योग, उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर अपर्याप्त अवस्था पर्यन्त सब औदारिफबारीरी जीवों को होता है ।
(७) सिर्फ कार्मणशरीर को मस्त से वीर्य-शक्ति की जो प्रवृत्ति होती है, वह 'फार्मणकाययोग' हैं। यह योग, विग्रह गति में तथा उत्पत्ति के प्रथम समय में सब जीवों को होता है । और केलिसमुद्धात के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में फेक्ली को होता है । कार्मणशरीर' यह है, जो कभं-पुदालों से बना होता है और आत्माके प्रदेशों में इस तरह मिला रहता है, जिस तरह दूध में पान. । सब शरीरों को अड, फार्मणशरीर ही है अर्थात् जब इस शरीर का समूस नाश होता है, तभी संसार का उच्छेद हो जाता है । जीव, नये जन्मको