Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग चार
२
प्रवृत नहीं होता, वह असत्यामुषवचनयोग है। जैसे:-- किसी का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिये कहना कि हे भोजवत्त | हे मित्रसेन ! इत्यादि पद सम्बोधनमात्र हैं, स्थापन उत्थापन नहीं । योग के भो मनोयोग की तरह, तत्त्व-ष्टि से सत्य और असत्य, ये वो ही मेद समझने चाहिये ।
काययोग के भेदों का स्वरूपः
(३) सिर्फ वैक्रिय शरीर के द्वारा वीर्य-शक्ति का जो व्यापार होता हैं, वह 'काययोग' । यह योग, देवों तथा मारकों को पर्याप्त अवस्था में सब ही होता है । और मनुष्यों तथा तिर्यों को वैक्रिय लब्धि के वन से क्रियशरीर धारण कर लेने पर ही होता है। वैकिय शरीर' उस शरीर को कहते हैं, जो कभी एकरूप और कभी अनेक रूप होता है, तथा कभी छोटा, कभी बड़ा मो आकाश-गामी, कभी भूमि- गामी, कभी रहय और कभी अवश्य होता है । ऐसा-चं क्रियशरीर देवों तथा नारकों को जन्म समय से ही प्राप्त होता है; इसलिये वह 'गति' कहलाता है। मनुष्यों तथा तिर्यञ्चका वैक्रियशरीर 'लब्धिप्रत्यय' कहलाता है; क्योंकि उन्हें ऐसा शरीर, लब्धि के निमित्त से प्राप्त होता है, जन्म से नहीं ।
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भावान
(२) क्रिय और कार्मण तथा वैक्रिय और औदारिक, इन दोदो शरीरों के द्वारा होने वाला बीयं शक्ति का व्यापार, र्वक्रि मिश्रकाययोग' है । पहले प्रकार का वैक्रियमिश्रकाययोग, देवों तथा नारकों को उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर अपर्याप्त अवस्था तक रहता है । दूसरे प्रकार का क्रियमिव काययोग, मनुष्यों और तिर्यञ्चों में लखी पाया जाता है जब कि वे लब्धि के सहारे से वैक्रिय शरीर का आरम्भ और परित्याग करते हैं ।
(३) सिर्फ आहारक शरीर की सहायता से होने वरना वीर्य-शक्ति का व्यापार, 'आहारककाययोग' है ।