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कर्मग्रन्थ भाग चार
बोषी समझना । ह समें एक अंश मिथ्या है, क्योंकि दोष की तरह गुण भी बोष रूप से सवाल किये जाते हैं ।
(४) जिस ममोयोग के द्वारा की जाने वाली कल्पना विधि-निषेधशून्य हो–जो कल्पना, न तो किसी वस्तु का स्थापन ही फरसो हो और न उत्थापन, वह 'असत्यामूटषामनोयोग है । असे:-हे देववस । हे इन्द्रवत्त । स्यादि । इस कल्पना का अभिप्राय अग्य कार्य में ध्यप्रव्यक्ति को सम्बोधित करना मात्र है. किसी तत्व के स्थापन-उत्थापन का नहीं।
उक्त चार मेव, घ्यबहारनयको अपेक्षा से हैं। क्योंकि निश्चय हष्टि से सबका समावेश सत्य और असत्य, इन वो भेदों में ही हो जाता है । अर्थात् जिस मनोयोग में छल-कपट की बुद्धि नहीं है, चाहे मिश्न हो या असत्षामृष, उसे 'सत्यमनोयोग' ही समलना चाहिये । इसके विपरीत जिस मनोयोग में छल-कपट का अंश है, वह 'असत्यमनोयोग' ही है।
वचन योग के भेदों का स्वरूप:
(१) जिस 'वचनयोग' के द्वारा वस्तु का यथार्थ स्वरूप स्यापित किया जाय; जैसे:-यह कहना कि जीब सत्रूप भी है और असप मो, वह 'असत्यवचनयोग' है ।
२) किसी वस्तु को अयथार्थ रुप से सिद्ध करने वाला बचनपोग, 'असत्यवचनयोग है; जैसे:-यह कहना कि आरमा कोई पोज नही है या पुण्य-पाप कुछ भी नहीं है ।
(३) अनेक रूप वस्तु को एकरुप ही प्रतिपादन करने वाला वचनयोग मिश्रवचनमोग' है । जैसे:---आम, नीम, माचि अनेक प्रकार के वृक्षों के वन को आम का हो यन कहना, इत्यादि ।
(४) जो 'वचनयोग' किसी वस्तु के स्थापन-उत्थापन के लिये