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कर्मग्रन्थ भाग चार
अनाहारकमार्गणा में पहला, दूसरा, चौथा, तेरहवां और धोबहरा, ये पाँच गुणस्थान कहे हुए हैं। इनमें से पहले तीन गुणस्थान विग्रहगति-कालीन अनाहारक-अवस्था की अपेक्षा से, तेरहवां गणस्थान केलिसमुद्धात के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में होने वाली अनाहारषा अवस्था की अपेक्षा से । और चौद
वाँ गुणस्थान योग-निरोधजन्य अनाहारक-अवस्था की अपेक्षा से समझना चाहिये।
कहीं-कहीं यह लिखा हुआ मिलता है कि तीसरे, बारहवें और तेरहवें, इन तीन गुपए स्थानों में मरण नहीं होता, शेष ग्यारह गणस्थानों में इसका संभव है। इसलिये इस जगह यह शङ्का होती है कि जब उक्स शेष ग्यारह गुणस्थानों में मरण का संभव है, तब विग्रहगति में पहला, दूसरा और चौथा, ये तीन ही गुणस्थान क्यों माने जाते हैं?
इसका समाधान यह है कि मरण के समय उक्त ग्यारह गणस्थानों के पाये जाने का कयन है, सो व्यावहारिक मरण को लेकर { वर्तमान भवका अन्तिम समय, जिसमें मोष मरणोन्मुख हो जाता है, उसको लेकर ), निश्चय मरण को लेकर नहीं । परभक्ष की आयु का प्राथमिक उदय, निश्चय भरण है। उस समय जीव विरति-रहित होता है । वितिका सम्बन्ध वर्तमान भव के अन्तिम समय तक ही है । इसलिये निश्चय मरण-काल में अर्थात् विग्रहगति में पहले, दूसरे और चौथे गुणस्थान को छोड़कर विरतिवाले पांचवें आधि आठ गणस्थानों का संभव ही नहीं है ।। २३ ॥