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कर्मनन्थ भाग चार
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सब्धि-अपर्याप्त ए केन्द्रिय आदि में कोई जीव सास्वादन-मावसहित आकर जन्म ग्रहण नहीं करता।
कृष्ण, नील और कापोत, इन तीन लेण्याओं में छह गुगस्थान माने जाते हैं । इनमें से पहले चार गणस्थान ऐसे हैं कि जिनको प्राप्ति के समय और प्राप्ति के बाव भी उक्त तीन लेश्याएं होती हैं । परन्तु पांचों और छठा, ये वो गुणस्थान ऐसे नहीं हैं। ये को गणस्थान सम्यक्तबमूसक विरतिरूप हैं। इसलिये उनकी प्राप्ति तेजः मावि शुभ लेश्याओं के समय होती है। कृष्ण आदि अशुभ लेश्याओं के समय नहीं । तो भी प्राप्ति हो जाने के गाल नरिणाम-गि दुई के रहन वो गुणस्थानों में अशुभ लेश्याएं भी आ जाती है।
कहीं-कहीं कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्याओं में पहले चार ही गणस्यान कहे गये हैं, सो प्राप्ति-काल की अपेक्षा से अर्थात् उक्त तीन लेण्याओं के समय पहले चार गणस्थानों के सिवाय अन्य कोई गुणस्थान प्राप्त नहीं किया जा सकता।
सेजोलेल्या और पपलेश्या में पहले सात ग णस्थान माने हुए हैं, सो प्रतिपद्यमान और पूर्वप्रतिपन, बोनों को अपेक्षा से अर्थात् सात गणस्थानों को पाने के समय और पाने के बाद भी उक्त दो लेश्याएँ रहती हैं।
१--यही बात श्रीभद्र बाहुस्वामी ने ही है:-- "सम्मत्तसुयं सध्या,-सु लहइ सुद्धासु तीसु य चरितं । पुध्धपरियन्नो पुण, अन्नयरीए उ लेसाए ॥२२॥"
--आवश्यक-नियुक्ति, पृ०३ मर्थात् "सम्यक्त्व की प्राप्ति सब लेश्याओं में होती है, चारित्र की प्राप्ति पिछली तीन शुद्ध लेश्याओं में ही होती है । परन्तु चारित्र प्राप्त होने के बाद छह में से कोई लेश्या आ सकती है।"
२. इसके लिये देखिये, पञ्चसंग्रह, द्वार १, गा ३० तथा बन्धस्वामित्व , गाव २४ और जीवकाण्ड गा, ५३१ ।