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कमग्रन्थ भाग चार
आबि ग्यारह गुणस्थान हैं। मिथ्यात्व- त्रिक (मिध्यादृष्टि सास्वादन और मिश्रष्टि--) में, देशविरति में तथा सूक्ष्मसम्पराय चरित्र में स्व-स्व स्थान ( अपना-अपना एक ही गुणस्थान ) है । योग, शुक्ललेामार्गणा में पहले तेरह गुणस्थान है ।। २२ ।।
आहारक और
भावार्थ – उपशमसम्यक्त्व में आठ गुणस्थान माने हैं। इनमें से चोथा भरवि चार गुणस्थान, ग्रन्थि-मेव-जन्य प्रथम सम्यक्त्व पाते समय और आठवी आदि चार गुणस्थान, उपशमश्रेणी करते समय होते हैं ।
वेदसम्यत्व तभी होता है। जब कि सम्मोहनीय का उदय हो । सम्यक्तवमोहनीय का उदय श्रेणी का आरम्भ न होने तक { सातवें गुणस्थान तक रहता है । इस कारण वेदकसम्यक्तव में चौथे से लेकर चार ही गुणस्थान समझने चाहिये ।
चौथे और पांचवें आदि गुणस्थान में क्षायिकसम्यक्तव प्राप्त होता है, जो सवा के लिये रहता है; इसी से उसमें चौथा आदि ग्यारह गुणस्थान कहे गये हैं ।
१ --- देखिये, परिशिष्ट ' '
पहला ही गुणस्थान मिथ्यास्वरूप, तीसरा ही मिश्र दृष्टिरूप, पाँचत्र ही सूक्ष्मसम्परायचारित्ररूप है। इसी से सूक्ष्मसम्पराय में एक-एक गृणस्थान कहा गया है ।
तीन प्रकार का योग, आहारक' और शुल्कलेश्या, इन छह मार्गणाओंमें तेरह गुणस्थान होते हैं; क्योंकि चौदहवें गुणस्थान के समय न तो किसी प्रकार का योग रहता है, न किसी तरह का आहार ग्रहण किया जाता है और न लेश्या का ही सम्भव है।
योग में तेरह गुणस्थानों का कथन मनोयोग आदि सामान्य योगों
दूसरा ही सास्वादन - भावरूप, देश विरतिरूप और दसवाँ हो मिथ्यात्व त्रिक, बेशविरति और