Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्म न्य भाग चार
माने जाते हैं कि उक्त दोनों दर्शन क्षात्रपशमिक हैं। इससे भामिकदर्शन के समय अर्थात तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में उनका अभाव हो जाता है। क्योंकि क्षायिक और क्षायोपशमिक ज्ञान वर्शन का साहचर्य नहीं रहता ।
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arrer चारित्र में अन्तिम चार गुणस्थान माने जाने का अभिप्राय यह है कि यथास्यात चारित्र मोहनीय कर्म का उदय एक जाने पर प्राप्त होता है और मोहनीय कर्म का उदयाभाव ग्यारहवे से चौद हमें तक चार गुणस्थानों में रहता है ||२०|
मणनाणि सग जधाई, समइयछेय चउ बुन्नि परिहारे । केवलगि दो चरमा जयाइ हिदुमे ॥ २१ ॥
मनोज्ञाने सप्त यतादीनि सामायिकच्छेदे चत्वारि परिहारे । केवलद्विके हे चरमेऽयतादीनि नव मतिश्रुतावधिद्विके ॥११॥
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अर्थ – मनः पर्यायज्ञान में प्रमत्तसंयत आदि सात गुणस्थान; सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय- संयम में प्रमत्तसंयत आदि चार गुणस्थान; परिहारविशुद्धसंयम में प्रमतसंयत आदि वो गुणस्थान; केवल हिकमें अन्तिम दो गुणस्थान मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिठिक इन चार मार्गणाओं में अधिरतसम्यग्दृष्टि आदि नो गुणस्थान हैं ।। २१४
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मावार्थ-- मन पर्यायज्ञान वाले छठे आदि सात गुणस्थानों में वर्तमान पाये जाते हैं । इस ज्ञान की प्राप्ति के समय सातवाँ और प्राप्ति के बाद अन्य गुणस्थान होते हैं ।
सामायिक और छेवोपस्थापनीय, ये दो संयम, छठे आबि चार गुणस्थान में माने जाते हैं; क्योंकि वीतराग-भाव होने के कारण ऊपर के गुणस्थानों में इन सरागसंयमों का संभव नहीं है ।