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कर्मग्रन्थ भाग चार
वंशम में पहले बारह गणस्थान होते हैं। यथास्यासचारित्र में अन्तिम चार गुण स्थान है ॥२०॥
भावार्थ-तीन वेव और सीन संज्वलन-कषाय में नौ गुणस्थान कहे गये हैं, सो उवय की अपेक्षा से समझना चाहिये। क्योंकि उनको सत्ता ग्यारहवे गुणस्थान पर्यन्त पाई जा सकती हैं। मघः गुणस्थान के अन्तिम समय तक में तीन वेद और तीन सयलनकषाय या तो सोण हो जाते हैं या उपशान्त; इस कारण आगे के गृणस्थानों में उनका उवय नहीं रहता।
___सज्वलन लोभ में वस गुणस्थान उज्य की अपेक्षा से ही समालमे चाहिये, क्योंकि ससा तो उसकी ग्यारहवें गुणस्थान तक पायी जा सकती है।
अविरति में पहले चार गुणस्थान इसलिये कहे हुए हैं कि पांचवे से लेकर आगे के सब गुणस्थान विरतिरूप हैं।
अशान-धिको गुणस्थानों की संख्या के विषय में दो मत' हैं। पहला उसमें दो गुणस्थान मानता है और दूसरा तीन गुणस्थान । ये दोनों मत कार्मग्रधिक है।
(१) वो गुणस्थान माननेवाले आचार्य का अभिप्राय गह है कि कि तीसरे गुणस्थाम के समय शुद्ध सम्यक्त्व न होने के कारण पूर्ण यथार्थ जान भले ही न हो, पर उस गणस्थान में मिन-रष्टि होने से यमार्य ज्ञान की योड़ी-बहुत मात्रा' रहतो हो हैं । पयोंकि मित्र १--इन में से पहला मत ही गोम्मटसार-जीयकाण्ड की ६८६वीं गाथा
में उल्लिखित है। २-'मिथ्यात्वाधिकस्य मिश्र इष्टेरशानबाहुल्यं सम्यक्तवाधिकस्य पुनः सम्यकामगाहल्यमिति ।'
अर्थात्-"मिथ्यात्व अधिक होने पर मिश्र-दृष्टि में अज्ञान की बहुलता और सभ्यकत्व अधिक होने पर ज्ञान की बहुलता होती है।"