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कर्मग्रन्थ भाग चार
परिहारविशुद्धसंग्रम में रहकर श्रेणि नहीं की आ सकती इसलिये उसमें छठा और सातवां, ये को ही गुणस्थान समझने चाहिये ।
केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों क्षायिक हैं । भाषिक-शाम और क्षायिक-धर्शन, तेरहवें और पौवह गुणस्थान में होते हैं, इसी से केवलसिक में उक्त वो गुणस्थान माने जाते हैं।
मतिमान, श्रुतज्ञान और अवधि-द्विकवाले, चौथे से लेफर बारहवें तक नौ गुणस्थान में वर्तमान होते हैं। क्योंकि सम्यक्तत्र प्राप्त होने के पहले अर्थात् पहले तीन गुणस्थानों में मति आदि अज्ञानरूप ही हैं और अन्तिम धो गुणस्थान में क्षायिक-उपयोग होने से इनका अमाय ही हो जाता है।
इस जगह अयविदर्शन' में नथ गुणस्थान कहे हुये हैं, सो कार्मप्रन्यिक मत के अनुसार । कार्मयिक विद्वान पहले तीन गुणस्थानों में अवधियर्शन नहीं मानते । वे कहते है कि विमङ्गज्ञान से अवधिवर्शन की मिमता न माननी चाहिये । परन्तु सिद्धान्त के मतानुसार उसमें
और भी तीन गुणस्थान गिनने चाहिये । सिद्धान्तो, विभङ्गज्ञान से अवधिवशेन को जुवा मानकर पहले तीन गुणस्थानों में भी अवषिवर्शन मानते हैं ।। २१ ॥
अड उवसमि चउ वेगि, खइए इफ्कार मिच्छतिगि वेसे । सुहमे य सठरणं तेर.-स जोग आहार सुक्काए ।। २२ ।।
अष्टोपशमे चत्वारि वेद के, क्षायिक एकादश मिथ्यात्रिके देशे ।
सूक्ष्मे च स्वस्थानं त्रयोदश योगे आहारे शुक्लायाम् ॥ २२ ॥
अर्थ--उपशमसम्यक्तव में चौथा आदि आठ, वेदक (क्षायोपमिक-) सम्यक्त्व में चौथा आवि चार और क्षायिकसभ्यषय चीया
१-दखिये, परिशिष्ट 'इ ।'