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कर्मग्रन्थ भाग चार
ष्टि के समय मिथ्यात्व का उदय जय अधिक प्रमाण में रहना है, तब तो अजान का अंश अधिक और शान का अंश कम होता है। पर जब मिथ्यात्व का उदय मन्द और सम्यक्तव-पुवग्ल का उवय तीन रहता है, तब ज्ञान की मात्रा ज्यादा और अबान की मात्रा कम होती है । चाहे मिश्र-ष्टि की कैसी भी अवस्था हो, पर उसमें न्यून अधिक प्रमाण में ज्ञान की मात्रा का सेभष होने के कारण उस समय के ज्ञान को अज्ञान न मानकर ज्ञान हो मानना उचित है । इसलिये अमान-त्रिक में दो हो गुणस्थान मानने चाहिये ।
(२) तीन गुणस्थान मानने वाले आचार्य का आशय यह है कि यपि तीसरे गुणस्थान के समय अज्ञान को ज्ञान-मिश्रित कहा है तथापि मिश्न-जान को जाम भानना उचित नहीं; उसे अज्ञान ही कहना चाहिये । क्योंकि शुद्ध सम्यक्तम हुए बिना चाहे कैसा भी बान हो, पर वह है अज्ञान । पदि सम्यक्त के अंश के कारण तीसरे गुणस्थान में जान को अनान न मानकर ज्ञान हो मान लिया जाय तो दूसरे गुणस्थान में भी सम्मक्तव का अंश होने के कारण ज्ञान को अज्ञान न पानकर जान ही मानना पड़ेगा, जो कि इTE नहीं है । इष्ट न होने का सबब यही है कि अमान-निकमें दो गुणस्थान मानने वाले भी, दूसरे गुणस्थान में मति आदि को अज्ञान मानते हैं । सिद्धान्त वादी के सिवाय किसी भी कामधिक विद्वान् को झुमरे गुणस्थान में मति आदि को ज्ञान भानमा इष्ट नहीं है। इस कारण सासाबन की तरह मित्रगुणस्थान में भी मति आदि को अज्ञान मानकर अज्ञान-त्रिक तीन गुणस्थान मानना युक्त है।
अचक्षुर्वर्शन तथा चक्षनर्शन में चारह गुणान इस अभिप्राय से
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१-'मिस्सभि का मिस्सा" इत्यादि । अर्थात् "मिश्रगुणस्थान में अशान, ज्ञान-मिश्रित है।"