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कर्मग्रन्थ माग धार
बाव न किसी को औपशामिकसम्यारव प्राप्त होता है, तब वह जसे त्याग करता हुआ सासावनसम्यक्त्वसहित एकेन्द्रिय आदि में जन्म प्रहण करता है। उस समय अपर्याप्त-अवस्था में कुछ काल तक दूसरा गुणस्थान पाया जाता है । पहला गुणस्थान तो एकेन्द्रिय
आदि के लिये सामान्य है । क्योंकि वे सब अनाभोग (अज्ञान-) के कारण तत्त्व-थबा-हीन होने से मिथ्यात्वी होते हैं । जो अपर्याप्त एकेन्द्रिय आवि, दूसरे गुणस्थान के अधिकारी कह गये हैं, वे करणअपर्याप्त हैं, लब्धि-अपर्याप्त नहीं; क्योंकि लब्धि-अपर्याप्त तो सभी जोष, मिथ्यात्वी ही होते हैं ।
सेजःकाय और वायुकाय, ओ गनिस या लधिनस काहे नाते हैं, उनमें न तो औपशमिकसम्यक्रव प्राप्त होता है और म औपशमिकसम्यक्त्व को बमन करने वाला जीव ही उनमें जन्म ग्रहण करता है। इसीसे उनमें पहला हो गुणस्थान कहा गया है ।
___ अमयों में सिर्फ प्रथम गुणस्थान, इस कारण माना जाता है कि के स्वभाव से ही सम्यव-लाभ नहीं कर सकते और सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना दूसरे आदि गुणस्थान असम्भब हैं ॥१६॥
वेयतिकसाय नव दस, लोभेचज अजय दुति अनाणतिगे । बारस अचक्खु चक्खुसु, पढमा अहखाइ चरम चउ ॥२०॥ वेदनिकषाये नव दश, लोमे चत्वार्ययते है भाग्यवानत्रि के । द्वादशाक्षुक्चेक्षुषोः, प्रथमानि यथाख्याते चरमाणि चत्वारि ।।२०||
अर्थ-तीन वेव तथा तोम कषाय (संज्वलन-क्रोष, मान और मापा-) में पहले नौ गुणस्थान पाये जाते हैं । लोभ में (संज्वलनलोभ-) में दस गुणस्थान होते हैं । मयत (अविरति-) में चार गुणस्थान हैं । तीन अज्ञान (मति-अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभङ्गान-) में पहले दो या तीन मुयसन माने जाते हैं । अयक्षदर्शन और चक्षु