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काँग्रन्थ भाग चार
की अपेक्षा से किया गया है । सत्यमनोयोग आदि विशेष घोगों को अपेक्षा से गणस्थान इस प्रकार हैं
(क) सत्यमन, असत्यामृषामन, सत्यवचन, असत्यामृषावचन और औदारिक, इन पांच योगों में तेरह गुणस्थान हैं।
(ख) असत्यमम, मिथमन, असत्यवचन, और मिश्रवचन, इस चार में पहले बारह गुणस्थान हैं।
(ग) औदारिकमित्र तथा फार्मणकायद्योग में पहला, बूसरा, चौथा और तेरहवा, ये चार गणस्थान हैं।
(घ) वैक्रियफाययोग मे पहले सात और क्रियमिश्रकाययोग में पहला, दूसरा, चौथा, पांचना और छठा, य पाँच गणस्थान है।
(च. आहारककाययोग में छठा और सातवां, ये दो और आहारकामधकाययोग में केवल छठा गणस्थान है ॥ २२ ॥
अस्सन्निसु पढमबुगं, पढमतिलेसासु छच्च दुसु सत्त। पहमतिद्गअजया, अणहारे मग्गणासु गुणा ॥२३॥ असंज्ञि पु प्रथमद्विक, प्रथमपिलेश्यासु षट् च द्वमोस्मप्त ।
प्रथमातिद्विकायतान्यताहारे मार्गणासु गुणाः ।। २३ ॥
अर्थ--संज्ञि प्रों में पहले दो गुणस्थान पाये जाते हैं। कृष्ण, नील और कापोत, इन तीन लेश्याओं में पहले छह गुणस्थान और सेज; और पद्म, इन तीन लेश्याओं में पहले सात गुणस्थान है । अना. हारफमार्गणा में पहले दो, अन्तिम वो और अविरतसम्यग्दृष्टि, ये पाँच गुणस्थान हैं। इस प्रकार मार्गणाओं में गुणस्थान का वर्णन हुआ ।। २३ ॥
मावार्थ- असंजी में बो गणस्थान कहे हुए हैं । पहला गुपस्थान सब प्रकार के अत्तियों को होता है और दूसरा कुछ असंशिओंको ऐसे असंजी, करण -अपर्याप्त एकेन्द्रिय आवि ही है, क्योंकि