Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग चार
सभी उपयोग क्रमभावी' हैं, इसलिये एक जीव में एक समय में कोई भी दो उपयोग नहीं होते ॥ ५३३" पजचरविअसंनिसु दुदंस बु अनाण दससु चक्बुविणा संनिपज्जे मणना - णखक केबल दुर्गा विणा ॥ ६ ॥
पर्याप्त चतुरिन्द्रियासंज्ञिनोः, द्विदर्शव्यज्ञानं दशसु चक्षुविना । संज्ञिन्यपर्याप्ते मनोज्ञान वक्षुः केवल द्विकविहीनीः ॥ ६ ॥
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अर्थ पर्याप्त चतुरिन्द्रिय तथा पर्याप्त असंज्ञि - पचेन्द्रिय में चक्षु अचक्षु वो दर्शन और मतिपून घी अज्ञान कुल धार उपयोग होते हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बावर- एकेन्द्रिय, हीन्द्रिय और श्रोत्रिय, ये चारों पर्याप्त तथा अपर्याप्त और अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय तथा अपर्याप्त असंशिपचेन्द्रिय इन दस प्रकार के शोषों में मति-अज्ञान, श्रुत- अज्ञान और अचक्षुर्दर्शन ये तीन उपयोग होते हैं । अपर्याप्त संज्ञि पञ्चेन्द्रियों में मनःपर्यायज्ञान, पशु दर्शन केवलज्ञान, केवलवर्शन, इन चार को छोड़ शेष आठ ( मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञानदर्शन, मति अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विमङ्गज्ञान और अवशुदर्शन ) उपयोग होते हैं || ६ ॥
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भावार्थ- पर्याप्त चतुरित्रिय और पर्याप्त अपिचेन्द्रिय में चक्षुवर्शन आदि उपर्युक्त चार ही उपयोग होते हैं; क्योंकि आवरण
इंक्मिणीहिणा वा मत्थे अविसेसी दृणं जं गहणं । अंतीमुतकालो, उब जोगो सो अणायारो ॥ ६७४ |
जीवकाण्ड |
क्षायिक उपयोग की एक समय-समान स्थिति, "अन्ने एगंतरियं इच्छंत सुझोवएसेणं ।" इस कथन से सिद्धान्त सम्मत है। विशेष खुलासे के लिये नन्दी सु० २२, मलयगिरिवृत्ति पु० १३४ तथा विदीप ० ० ३१०१ की वृत्ति देखना चाहिये । लोकप्रकाश के तीसरे सर्ग में भी यही कहा है"एकस्मिन् समये ज्ञानं दर्शनं चापरक्षणे ।
सर्वज्ञस्योपयोगी हो, समयान्तरित सवा ॥ ६७३ ।। " १ - देखिये, परिशिष्ट 'च ।'
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