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कर्मग्रन्थ भाग चार
संज्ञिमागंणा में दो संज्ञि जीवस्थान के सिवाय अन्य किसी जीवस्थान का सम्भव नहीं है, क्योंकि अन्य सब जीवस्थान असंती ही हैं । देवगति आदि उपर्युक्त मागंगाओं में अपर्याप्त सभी का मतलब कर-पर्याप्त से है, अप से नहीं। इसका कारण यह है कि देवगति और नरक गति में लब्धि अपर्याप्त रूप से कोई जीव पैया नहीं होते और म लब्धि अपर्याप्त को मति आदि ज्ञान, पद्म आदि लेश्या तथा सम्यक्त्व होता है ॥ १४ ॥
समसंनिअपज्जजुर्ग, नरे सबायरअपज्ज तेऊए ।
यावर इगिंदि पढमा चत्र बार असन्नि दु दुखिगले || १५ || तवसंग्यपर्याप्तयुतं नरे सवादराय पर्याप्तं तेजसि । स्थावर एकेन्द्रिये, पथमानि चत्वारि द्वादशमंज्ञिनि
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विकले ||१५||
'जो जवसमसम्मो उवसमसेोए कालं करे सो पढमसमये वेद सम्मत्तपुंजं उबयान लिगाए, छोड्न सम्मतपुरले वेएर, तेग न उवसमसम्म हिट्ठी अपनत्तगो लग्मइ ।”
अर्थात् "जो उपशमसम्यग्दृष्टि, उपशमश्रेणि में मरता है, वह मरण के प्रथम समय में हो सम्यक्त्वमोहनीय पुजको उदयवलिका में उसे लाकर उसे वेदता है; इससे अपर्याप्त अवस्था में औपशमिकसम्यवत्व पाया नहीं जा सकता ।"
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इस प्रकार अपर्याप्त अवस्था में किसी तरह के ओपशमिकसम्यक्त्व का सम्भव न होने से उन आजार्यो के मत से सम्यक्त्व में केवल पर्याप्त संशी जीव स्थान ही माना जाता है ।
इस प्रसङ्ग में श्रीजीवविजय जी ने अपने टबेमें ग्रन्थ के नाम का उल्लेख किये बिना ही उसकी गाथा को उद्धृत करके लिखा है कि औपमिसम्यक्त्वी ग्यारह गुणस्थान से गिरता है सही पर उसमें मरता नहीं । मरनेवाला श्रमिकसम्यक्तवी ही होता है । गाथा इस प्रकार है
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'उससे पत्ता, मरंति उवसमगुणेषु जे सत्तर ते लवसत्तम देवा, सब
जुआ ।"