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कर्मग्रन्थ भाग चार
उन जीवस्थानों में लिखा है, सो अन्य अपेक्षा से अर्थात् वेव-गुरु-धर्मका स्वीकार न होने के कारण उन जीवस्थानों का मिध्यात्व 'अनमिप्रहिक' भी कहा जा सकता है ॥१६॥
पजसती केवलदुग, संजय मणनाणदेसमणमीसे ।
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पण चरमपज्ज वयणे, तिय छ व परिजयर चक्खुमि ||१७|| पर्याप्तसंज्ञी केवलहिक - संयत मनोज्ञानदेश मनोमि ।
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पञ्च चरमपर्याप्तानि वचने, श्रोणि पड् वा पर्याप्तितराणि चक्षुषि ।। १७॥ अर्थ- केवल ट्रिक (केवलज्ञान - केवलर्शन ) सामायिक क्षादि पाँच संयम, मनःपर्यायज्ञान, वैशविरति मनोयोग और मिसम्यक्त्व, इन ग्यारह मार्गणाओं में सिर्फ पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान है । वचनयोग में अन्तिम पाँच (डीप्रिय, योन्द्रिय, चतुरिप्रिय, असंति- पचेन्द्रिय और [सं-पत्र) पर्याप्त जीवस्थान हैं। चक्षुदंर्शन में पर्याप्त तीन (चतुरिन्द्रिय असंशि- पञ्चेन्द्रिय और सोंज्ञ-पचेन्द्रिय) जीवस्थान मतान्तर से पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकार के उक्त तीन अर्थात् फूल छह जीवस्थान हैं ।। १७ ।।
भावार्थ - केवल-लिक आदि उपर्युक्त ग्यारह मार्गणाओं में सिर्फ पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान माना जाता है। इसका कारण यह है कि पर्याप्त संज्ञी के सिवाय अन्य प्रकार के जीवों में न सर्वविरति का और न वेशविरतिका संभव है । अत एव संज्ञि-भिन्न जोवों में केवल विक, पाँच संगम, देशविरति और मनःपर्यायज्ञान, जिनका सम्बन्ध विरतिसे है, वे हो ही नहीं सकते । इस तरह पर्याप्त संझी के सिवाय अन्य जीवों में तथाविषद्रव्यमन का सम्बन्ध न होने के कारण मनोयोग नहीं होता और मिसम्यक्त्व को योग्यता भी नहीं होती ।
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एकेन्द्रिय में भाषापर्याप्ति नहीं होती । भाषापर्याप्ति के सिवाय योग का होना संभव नहीं । कीन्द्रिय आवि जीवों में भाषापर्यादित का संभव है । वे जब सम्पूर्ण स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण कर लेते हैं, तभी उनमें भाषापर्याप्ति के हो जाने से बचनयोग हो सकता है। इसी से