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कर्मग्रन्थ भाग चार
वह जीवस्थानों में से दो हो जीवस्थान संज्ञी हैं । इसी कारण संज्ञिमागंणा में बारह जीवस्थान समझना चाहिये ।
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प्रत्येक विकलेन्द्रिय में अपर्याप्त तथा पर्याप्त दो-यो जीवस्थान पाये जाते हैं, इसी से विकलेन्द्रियमार्गणा में दो ही वो जीवस्थान मात्रे गये हैं |१५||
दस चरम तसे अजया, हारगति रितणुक साय अनाणे | पढमतिले साभवियर, अचक्खुनपुमिच्छि सथ्ये वि ॥१६॥ दश चरमाणि त्रसेऽयताहारक तिर्यक्तनु कषायद्व्यज्ञाने |
प्रथम त्रिलेश्या भव्येतराऽचक्षुर्नषु मिथ्यात्वे सर्वाण्यपि ।। १६ ।।
अर्थ – सकाय में अन्तिम बस जीवस्थान है। अविरति, आहारक तिर्यञ्चगति, काययोग, चार कवाय मति श्रुत को अज्ञान कृष्ण आदि पहली तीन लेश्याएँ, मध्यश्व, अमध्यस्थ, अचक्षुर्दर्शन, नपुंसक वेद और मिथ्याराथन भातु पाणी) स्थान पाये जाते हैं ।। १६ ॥
भावार्थ - चौदह में से अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा अपर्याप्त और पर्याप्त बावर एकेन्द्रिय इस बार के सिवाय शेष दस जीवस्थान त्रसफाय में है; क्योंकि उन बस में ही असनामकर्म का उमय होता है और इससे वे ही स्वतन्त्रतापूर्वक चल-फिर सकते हैं ।
अविरति आदि उपर्युक्त अठारह मार्गणाओं में सभी जोषस्थान इसलिये माने जाते हैं कि सब प्रकार के जीवों में इन मार्गणाओं का सम्भव' है ।
मिध्यात्व में सब जीवस्थान कहे हैं। अर्थात् सब जीवस्थानों में सामान्यतः मिथ्यात्व कहा है। किन्तु पहले बारह जीवस्थानों में बनाभोग मिध्यात्व समझना चाहिये; क्योंकि उनमें अमाभोग-जन्य (अज्ञान - जम्प अतत्व- रुचि है । पञ्चसंग्रह में 'अनभिग्रहिक - मिथ्यात्व ' १- देखिये, परिशिष्ट 'ट ।'