________________
कर्मग्रन्थ भाग चार
अर्थ-मनुष्य गति में पूर्वोक्त संजि-द्विक (अपर्याप्त तथा पर्याप्त संशो) और अपात असं न नीका है । गोलेया में शबर अपर्याप्त और संजी-द्विक, ये तीन जीवस्थान हैं। पांच स्थावर और एकेन्द्रिय में पहले चार (अपर्याप्त सूक्ष्म, पर्याप्त सूक्ष्म, अपर्याप्त बाबर और पर्याप्त बावर) जोवस्थान है । असंक्षि मार्गणा में संशिविकके सिवाय पहले बारह जोवस्थान हैं । विकन्द्रिय में दो-दो अपर्याप्त तथा पर्याप्त जीवस्थान हैं ॥१५॥
भावार्थ मनुष्य को प्रकार के है:--गर्भज और सम्मन्छिम । गर्भज सभी संजोही होते हैं, वे अपर्याप्त तथा पर्याप्त दोनों प्रकार के पाये जाते हैं। पर संमश्छिम मनुष्य, जो ढाई लोप-समुद्र में गर्भज मनुष्य के मल-मूत्र, शुक्र-शोणित मादि में पैदा होते हैं, उनकी आयु अन्तमहतं-प्रमाण ही होती है। वे स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना ही मर जाते हैं, इसो से उन्हें लरिष-अपमाप्त हो माना है, तथा दे असंज्ञी हो माने गये है । इसलिये सामाग्य मनुष्य गति में उपर्युक्त तीन ही जीवस्थान पाये जाते हैं ।
उसका मतलब यह है कि 'जो जीव उपशमश्रेणी को पाकर ग्यारहवं गुणस्थान में मरते हैं, वे सर्वार्थसिद्धविमान में शामिनामम्यक्त्व-युक्त ही पंधा होते हैं और 'लवसत्तम दव' कहलाते हैं। लवसप्तग कहलाने का सबब यह है कि सात लव-प्रमाण आयु कम होने से उनको देव का जन्म ग्रहण करना पड़ता है। मदि उनकी आयु और गी अधिवः होती तो देव हुए बिना उमी जन्म में मोक्ष होता ।
१- जैसे, भगवान् श्यामाचार्य प्रभागना पृ. ५. में वर्णन करते है:___ "कहिणं भंते संमुनिछममणुस्सा संमुच्छेति ? गोयमा ! अंतो मगुस्सखेत्तस्स पणयालीसाए जोयणसमसहस्सेसु अबदाइज्जेमु दीवसमहसू पत्ररस कम्मभूमीसुतीसाए अकम्मभूमीसु छप्पनाए असरबौवेसु गमवक्कलियमणुस्साणं घेव उच्चारेसु वा पासवणेषु वा खेलेसु मा तेसु वा पित्तेसु वा सुक्कसु वा सोणिएसु वा सुक्कपुरंगपरिसाडेसु था विगयलीवकलेवरेसु वा धोपुरिससंजोगेसु वा नगरनिक्षमणेतु का सध्वेसु चेव असुइठाणसु इच्छर्ण समुच्छिममणुस्सा संमुण्छति अगुसस असंखभागमित्ताए ओगाहणाए असली भिधिट्टी अन्नाणी सवाहि पस्नत्तीहि अपञ्जता अंतमुहसाउया चेव कालं करति ति।"