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कर्मग्रन्थ भाग चार
फयुत होकर अनुत्तरविमान में पैदा होता है, तब अपर्याप्त अवस्था में Mareecured पाया जाता है ।
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१ - यह मन्तव्य "सप्ततिका" नामक छड़े कर्मग्रन्थ की चूर्णी और पदसंग्रह के मतानुसार समझना चाहिये। चूर्णी में अपर्याप्त अवस्था के समय नारकों में क्षायोपशमिक और क्षायिकां ये दो; पर देवों में औपशमिकसहित तीन सम्यक्त्व माने हैं। पञ्चसंग्रह में भी द्वार १ गा० २५वीं तथा उसकी टीका में उक्त चूर्णी के मत की ही पुष्टि की गई है । गोम्मटसार भी इसी मत के पक्ष में है; क्योंकि वह द्वितीय - उपमश्रेणी-मादी – उपशम सम्यक्त्व हो अपर्याप्त अवस्था के जीवों को मानता है । इसके लिये देखिये, जीवकाण्ड की गा० ७२६६ी ।
परन्तु कोई आचार्य यह मानते हैं कि 'अपर्याप्त अवस्था में औपशfree rare नहीं होता । इनसे केवल पर्याय संजी जीवस्थान मानना चाहिये।' इस मत के समर्थन में वे कहते हैं कि 'अपर्याप्त अवस्था में योग्य (विशुद्ध) अध्यवसाय न होने से औपशमिकसम्यक्त्व नया तो उत्पन्न ही नहीं हो रहा पूर्वे में सो उसका भी अपर्याप्त अवस्था तक रहना शास्त्र सम्मत नहीं है; क्योंकि ऑपशमिकस - म्यरख दो प्रकार का है । एक तो वह जो अनादि मिथ्यात्वी को पहलेपहल होता है। दूसरा वह, जो उपशमश्रेणिक समय होता है। इसमें पहले प्रकार के सम्यक्त्व के सहित तो जीव मरता ही नहीं । उसका प्रमाण आगम में इस प्रकार है:
"झणघोषय माग, बंधं कालं च सासणी कुणई ॥ उहमिक्कं पि नो कुणई ॥"
उपसमसम्म हिट्टो,
अर्थात् "अनन्तानुबन्धो का बन्ध, उसका उदय, आयु का बन्ध और मरण, ये चार कार्य दूसरे गुणस्थान में होते हैं, पर इनमें से एक भी कार्य औप मिसम्यक्त्व में नहीं होता।"
दूसरे प्रकार के औपशमिकसम्यक्त्व के विषय में यह नियम है कि उसमें वर्तमान जीव मरता तो है, पर जन्म ग्रहण करते ही सम्यक्त्वमोहनीय का उदय होने से वह औदामिकसम्यक्त्वी न रहकर क्षायोपशमिकस बन जाता है । यह बात शतक | ( पाँचवें कर्म ग्रन्थ) को बृहचूणों में लिखी है ।