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कर्मग्रन्थ भाग चार
[१]-मार्गणाओं में जीवस्थान ।
पाँच गाथाओं से] आहायर भेया, सरनरग्यविभगमहसुओहिदुगे ।
सम्मसतिगे पम्हा,--सुक्कासन्नीसु सन्निदुर्ग ॥१४॥ आहारेतरी भेदास्सुरनरकविभङ्गमतिश्रुतावधिद्धिके । सम्यक्त्वत्रिके पाक्लासंज्ञिघु संजिद्विकम् ॥१४॥
अर्थ-- आहारकमार्गमा के आहारक और अनाहरक, ये दो मेव है । वेवति, नरकति. विभङ्गाजान, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, अवधिवशेन, तौन सम्यक्त्व (ओपशभिक, शायिक और क्षायोपशमिक), दो लेश्याएँ (पद्मा और शुल्का और संशिव, इन तेरह मार्गणाओं में अपर्याप्त संझो और पर्याप्त संजो, घे वो जीवस्थान होते हैं ॥१४॥
(१४)--आहारकर्मागणा के भेदों का स्वरूप:--- भावार्थ--- १) जो जीव, ओज, लोम और केवल, इनमें से किसी भी प्रकार के बाहार को करता है, वह 'आहारक' है।
(२) उक्त तीन तरह के आहार में से किसी भी प्रकार के आहार को जो जीव ग्रहण नहीं करता है, वह 'अनाहारक' है ।
वगति और नरकगति में वर्तमान कोई भी जोय, असंज्ञो नहीं होता । चाहे अपर्याप्त हो या पर्याप्त, पर होते हैं सभी संज्ञो हो । इसी से इन दो गतियों में वो ही जीवस्थान माने गये हैं ।
विमनाजान को पाने की योग्यता किसी भसंझी में नहीं होती अस्तउसमें भी अपर्याप्त-पर्याप्त संशो ये को ही जोवस्थाम माने गये है।
१-यह विषय पञ्चसंग्रह गाथा २२ से २७ तक में है। २-यद्यपि पञ्चसंग्रह द्वार गाथा २७वीं में यह उल्लेख है कि विभङ्गशान में संज्ञी - पर्याप्त एक ही जीवस्थान है,