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फर्मग्रन्थ भाग चार
कर्मग्रन्थ की री गाथा के माधर्ष में लिखा गया है। इसको 'प्रथभोपामसम्पाव' भी कहा है ।
ख) 'उपशमणि-माषी औपचामिकसम्यमस्व' को प्राप्ति बाणे, पाँच,छठे या सातवें में से किसी भी गुणस्थान में हो सकती है। परन्तु माठवें गुगस्थान में सो उसको प्राप्ति अवश्य ही होती है।
बोपशमिकसम्यक्रव के समय आयुबन्ध, मरग, अनन्तानुबन्धी कषाय का बन्ध तथा अनन्तानुबन्धीकवाय का, उवय, ये धार पाते नहीं होती। पर उससे च्युत होने के बाद सास्वावम-भाव के समय उक्त चारों बातें हो सकती है।
(२) अनन्तानुबन्धीय और धर्शनमोहनीय के क्षयोपशम से प्रकट होने वाला तत्व-हचिरूप परिणाम, 'क्षायोपमिकसम्यगाव' है।
(३) जो तत्व-रूचिरूप परिणाम, अनन्तानुबन्धी-चतुक और दर्शनमोहनीय-निक के क्षय से प्रकट होता है, वह 'मायिकसम्यमत्व' है।
___ यह क्षायिकसम्यक्त्व, जिन-कालिक मनुष्यों को होता है। जो जीब युबन्ध करने के बाद इससे प्राप्त करते हैं, वे तीसरे पा चौथे मव में मोक्ष पाते हैं। परन्तु अगले भव की आपु बाँधने के पहिले जिनको यह सम्यक्त्व प्राप्त होता है, वे वर्तमान भव में हो मुक्त
१--मह मत, श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनो को एकसा इष्ट है 1 सणसवणस्तरिहो, जिणकालीयो पुमवासुबरि" इत्यावि ॥
-पञ्चसंग्रह पृ० ११६५ । "सगमोहसवणा,-पडवगो कम्मभूमिजो मणुसो । तिरपयरपायमूले केवलिसुबकेवलीमूले ॥११."
--सन्धिसार ।