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कर्मग्रन्थ भाग चार
( ४ ) औपशमिकसम्वत् का त्याग कर मिध्यात्व के अभिमुख होने के समय, जीव का जो परिणाम होता है, उसी को 'सास दनसम्पद' कहते हैं । इसकी स्थिति, जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट सह आवलिकाओं को होती है । इसके समय, अनन्तरनुबन्धीकवायों का उदय रहने के कारण, जीव के परिणाम निर्मल नहीं होते । सरसावन में मतस्व-रुचि, अव्यक्त होती है और मिध्यास्व में व्यक्त यही योगों में अन्तर है ।
(५) तत्व और अतत्व, इन दोनों की रूचिप मिश्र परिणाम, जो सम्यङ्गमिथ्यामोहनीय कर्म के उदय से होता है, वह 'मिसम्यऋश्व ( सम्यङ्गमा) है |
(६) मिथ्यात्व वह परिणाम है, जो मिथ्यामोहनीय कर्म के उवय से होता है जिसके होने से जोष, जड़-चेतन का भेद नहीं जान पत्ता इसी से आत्मोन्मुख प्रवृत्तियाला मी नहीं हो सकता है । कप्रि आदि दोष इसके फल हैं ।
[१३] - संज्ञीमागंणा के भेदों का स्वरूपः --
(१) विशिष्ट मनःशक्ति अर्थात् वीर्घकालिकी संश
'संजिब' है ।
(२) उक्त संज्ञा का न होना 'असंज्ञित्य' हे ||१३||
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का होना
( १ ) - यद्यपि प्राणीमात्र को किसी न किसी प्रकार की संज्ञा होती ही है; क्योंकि उसके बिना जीवस्व ही असम्भव है, तथापि शास्त्र में जो संशी असंज्ञी का भेद किया गया है, सो दीर्घकालिकी संज्ञा के आधार पर इसके लिये देखिये, परिशिष्ट 'ग'