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फर्मग्रन्थ भाग चार
असंशि- पञ्चेन्द्रिय आदि चार जीवस्थान कहे हुए हैं। इसमें अपर्याप्तका मतलब करण अपर्याप्त से है, लब्ध- अपर्याप्त से नहीं; क्योंकि - पर्याप्त को ध्यदेव, नपुंसक ही होता है ।
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असंशिपचेन्द्रिय को यहाँ स्त्री और पुरुष, ये दो वेव माने हैं और सिद्धान्त' में नपुंसक; तथापि इसमें कोई विरोध का कयम द्रव्यवेव को अपेक्षा से और सिद्धान्त अपेक्षा से है। भावनपुंसकवेद वाले को स्त्री या होते हैं।
नहीं है। क्योंकि यहाँका कथन भायवेद की
पुरुष के भी चिन्ह
अनाहारक मागंणा में जो आठ जीवस्थान ऊपर कहे हुए हैं, इनमें सात अपर्याप्त हैं और एक पर्याप्त सब प्रकार के अपर्याप्त जीव, अनाहारक े उस समय होते हैं, जिस समय वे विग्रहगति ( वक्रगति) में एक, दो या तीन समय तक आहार ग्रहण नहीं करते । पर्याप्त संशी को अनाहारक इस अपेक्षा से माना है कि केवलज्ञानी, मध्यमन के संबन्ध से संज्ञी कहलाते हैं और वे केवलिसमुद्धात के तीसरे, चौषे और पाँचवें समय में कार्मणकाययोगी होने के कारण किसी प्रकार के आहारको ग्रहण नहीं करते ।
१णं भते असंनिपञ्चेन्दिय तिरिक्खओजिया कि इश्विवेगा पुरिया नपुंसकवेयगा ? गोमा ! नो इस्थिवेग को पुरिसवेया नपुंसकयेगा ।" -भगवती
२] वासंज्ञिपर्याप्त पर्याप्तो नपुसको तथापि स्त्रीपु सलि ङ्गाकारमात्रमङ्गीकृत्य स्त्रीपु साबुक्ताविति । "
— ३- देखिये, परिशिष्ट 'रु ।'
संग्रह द्वार १ गा० २४ की मूल टीका ।
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