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कमग्रन्थ भाग चार वचनयोग में पर्याप्त वीन्द्रिय अादि उपयुक्त पाच जी प्रस्थान माने ट्वये है ।
आंखपालों को ही चादर्शन हो सकता है । चतुरिन्द्रिय, असंशिपञ्चेम्ब्रिय और संशि-पञ्चेन्द्रिय, इन तीन प्रकार के हो जीपों को आँखें होती हैं । इसी से इनके सिवाय अन्य प्रकार के जोवों में चक्षुर्वर्शन का अभाव है। उक्त तीन प्रकार के जवों के विषय में भी का मत हैं ।
१-इन्द्रियपर्याप्ति को नीचे-लिखी दो व्याख्यायें, इन मतों की जड़
(क) “इन्द्रियपापित जीन की वह शक्ति है जिसके द्वारा धातुरूप में परिणत आहार-गुदम्लों में से योग्य पुग्ल, इन्द्रियरूप में परिणत किये जात
है।"
यह व्याख्या, प्रज्ञापना-वृत्ति तथा पञ्चसंग्रह वृत्ति पृ०६ में है। इस व्याख्या के अनुसार इन्द्रियपर्याप्ति का मतलब, इन्द्रिय-जनकः शक्ति से है । इस व्याख्या को मानने वाले पहले मत का आशय यह है कि स्वयोग्य पान्तियाँ पूर्ण बन चुकने के बाद (पर्याप्त-अवस्था में) सबको इन्द्रियजन्य उपयोग होता है, अपर्याप्त अवस्था में नहीं । इसलिये इन्द्रि यपर्याप्ति पूर्ण बन चकने के बाद, नेप होने पर भी अपर्याप्त अवस्था में चतुरिन्द्रिय आदि को चक्षदंशन नहीं माना जाता।
(य)-- "इन्द्रियपर्याप्ति जीव की वह शक्ति है, जिसके द्वारा योग्य आहार पुलों की इन्द्रिय रूप में परिणत करके इन्द्रिय-जन्य दोध का सामर्थ्य प्राप्त किया जाता है"
यह व्यास्था वहतसंग्रहणी पृ० १३० तथा भगमती-बत्ति पृ०५६६ में है । इसक अनुसार इन्द्रिपर्याप्ति का मतलब, इन्द्रिय-रचना से लेकर, इन्द्रिय-जन्य उपयोग तक की सब कियाओं को करने वाली शक्ति से है । इस व्याख्या को मानने वाले दुसरे मत के अनुसार इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण बन जाने से अपर्याप्त-अवस्था में भी सबको इन्द्रिय-जन्य उपयोग होता है। इसलिये इन्द्रियपर्याप्ति बन जाने के बाद नेत्र-जन्य उपयोग होने के कारण अपर्याप्त अवस्था में भी चतुरिन्द्रिय आदि का चक्षुर्दर्शन मानना चाहिये । इस मत की पुष्टि, पञ्चसंग्रह-मलयगिरि-वृत्ति के 5 पृष्ठ पर उल्लिखित इस मन्तव्य से होती है: