________________
कर्मनन्ध भाग चार
कूलसा हो जाती है । ऐसा परिणाम शङ्ख के समान श्वेत वर्ण के लेण्याजातीय-पुवालों के सम्बन्ध से होता है।
(११)--भव्यत्वमागणा के भेदों का स्वरूप:--
(१) 'भस्म' थे हैं, जो अनादि तारश-पारिणामिक-मार के कारण मोक्ष को पाते हैं मा पाने की योग्यता रखते हैं ।
(२) जो अनादि तथाविध परिणाम के कारण किसी समय मोक्ष पाने की योग्यता ही नहीं रखते, वे 'अभश्य' हैं ।
(१२)- सम्यक्त्वमार्गणा के भेदों का स्वरूपः-- (१) चार अनन्तानुबन्धोकपाय और दर्शनमोहनीय के उपशम से प्रकट होने वाला तत्त्वरूचि रूप आत्म-परिणाम, औपक्षामिकसम्यक्त्व, है। इसके (क) 'ग्रन्थि-भेद जन्य' और (ख) 'उपशमश्रेणी-माधी' ये दो भेद हैं।
(क) 'प्रन्थि-भेद-जन्य औषशमिकसम्यक्त्व', अनादि-मिथ्यारवी भथ्यों को होता है । इसके प्राप्त होने की प्रक्रिया का विचार दूसरे
१-अनेक भव्य ऐसे हैं कि जो मोक्ष की योग्यता रखते हुए भी उसे नहीं पाते; क्योंकि उन्हें बसी अनुकूल सामग्री ही नहीं मिलती, जिमसे कि मोक्ष प्राप्त हो । इसलिये उन्हें 'जाति-मध्य कहते हैं । ऐसी भी मिट्टी है कि जिममें सुवर्ण के अंश तो हैं। पर अनुकूल साधन के अभाव से ने न तो अब तक प्रकट हुए और न आगे ही प्रकट होने की सम्भावना है। तो भी उस मिट्टी को योग्यता की अपेक्षा से जिस प्रकार 'सुवर्ण-मृत्तिका' (सोने की मिट्टी) कह सकते हैं। जैसे ही मोक्ष की योग्यता होते हुए भी उसके विशिष्ट साधन न मिलने से, मोक्ष को कभी न पा सकने वाले जीयों को 'जातिभव्य' कहना विरुद्ध नहीं । इसका विचार प्रज्ञापना के १८वे पद की टीका में, उपाध्याय-समयसुन्दरगणि-कृत विशेषशतक में तथा भगवती के १ शतक के रे 'जयन्ती' नामक अधिकार में है।
२-- देखिये परिशिष्ट 'श।'