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कर्मग्रन्थ भाग चार
(३! अपशिलग्धिवालों को इन्द्रियों की सहायता के बिना ही वपी वध्य-विषयक जो सामान्य को होता है, वह 'अवधिदर्शन' है ।
(४) सम्पूर्ण प्रख्य-परायों को सामान्य रूप से विषय करने वाला मोष 'फेवलवर्शन' है ।
दर्शन को अनाकार-उपयोग इसलिये कहते हैं कि इसके द्वारा पस्तु के सामान्य-विशेष, उभय रूपों में से सामान्य रूप (सामान्य आकार ) मुख्यतया जाना जाता है। अनाकार-उपयोग को न्याय-शेविक आदि दर्शनों में निर्विकल्पहाव्यवसायात्मकज्ञान' कहते हैं ॥१२॥
(१०)-- लेश्या के भेदों का स्वरूपः--
कियहा नीला काक, तेऊ पम्हा य सुक्क भवियरा । बेयमखाइगुवसममि,-छमीससासाण संनियरे ॥१३॥ कृष्णा नीला कापोला, तेजः पया च शुल्का भव्यतरी बदकलापिकोषमम मिया मिश्रमासादनान संझीतरी ॥१३॥
अर्थ--कृष्ण, मील, कापोत, तेजः, पद्म और शुल्क ये छह लेश्यायें हैं । भष्यत्व, अभयत्व, पे दो भेद भन्यमार्गणा के हैं । वेवक (सायोपशमिक), क्षायिक, औपशभिक, मिथ्यात्व. मिथ और सासावन, में छह भेव सम्यापरवमार्गणा के हैं - संशित्व, असंमिस्व, ये वो मेव पंनिमार्गणा के हैं ॥१६॥ __ भावार्थ--(१) काजल के समान कृष्ण वर्ण के सेश्या-आतीय पुदगलों के सम्बन्ध से आत्मा में ऐसा परिणाम होता है, जिससे हिसार आदि पाँच आस्त्रयों में प्रवृत्ति होती है, मन, बचन तथा शरीर का संयम नहीं रहता; स्वभाव क्षुद्र बन जाता है। गुण-दोष की परीक्षा किये बिना ही कार्य करने की आवतसी हो जाती है और क्रूरता मा जाती है, वह परिणाम 'कृष्णलेश्या है।