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वर्मग्रन्थ भाग चार
(७) किसी प्रकार के संयम का स्वीकार न करना 'अविरति' है। यह पहले से सोधे तक चार गणस्थानों में पायी जाती है। (8)-वर्शनमागंणा के चार भेवों का स्वरूप:-- (१) चा (
ने त्र के नारा जो दोष होता है. वा पक्षबर्शन' है ।
(२) पक्ष को छोड़ अन्म इन्द्रिय के द्वारा तथा मन के द्वारा जो सामान्ध बोष होता है, वह 'अनार्दशन' है।
- - परिमाण बहुत-क्रम कहा गया है । यदि मुनियों की दया को बीरा अंश मान ले तो शावकों की दया को गवा अंश कहना चाहिये । इसी बात वो जैन शास्त्रीय पग्भिापा में कहा है कि "साधुओं की दया बीस बिस्वा और श्वानों की दया सशा बिस्वा है"। इसका कारण यह है कि थापक, बस जीवों की हिंसा को छोड़ सकते हैं स्थावर जीवों की हिंसा को नहीं। इससे मुनियों की बीरा बिस्वादमा की अपेक्षा आधा परिमाण रह जाता है इसमें भी श्रावक, असकी संकल्प पूर्वक हिंसा का त्याग कर सकते हैं. आरम्भ-जन्य हिंसा का नहीं । अत एव उस आधे परिमाण में से भी आधा हिस्सा निकल जाने पर पांच बिस्वा दया बचती है । इरादा-पूर्वक हिसा भी उन्हीं प्रमों की त्याग की जा सकती है, जो निरपराध है। सााध असों की हिंसा से श्रावक मुक्त नहीं हो सकने इससे हाई बिस्वा दया रहती। इसमें से भी आधा अंश निकल जाता है। क्योंकि निरपरा असों की भी सापेक्षा हिसा धावकों के द्वारा हो ही जाती है, वे उनकी निरपेक्षाहमा नहीं करते । इसी से श्राबों की दया का परिमाण सवा विरवा माना है । स भाव को जानने के लिये एक प्राचीन गाथा इस प्रकार है।
"जोबा सुहमा चुला, ... आरंभा भवे दुनिहा।
सावराह निरवराहा, सविक्खा व निरविश्खा ॥" इसके विशेष खुलासे के लिए देखिये, जैनतरवादर्शना परिच्छेद १८वा ।
१--यद्यपि सब जगह दर्शन के चार भेद ही प्रसिद्ध हैं और इमी को मनः पर्याय दर्शन नहीं माना जाता है । तथापि कहीं-कहीं मनः पथ्याय दान की भी स्वीकार किया है। इसका उल्लेख तस्त्रार्थ-अ. स. २४ की टीका में है:---
"केचित्तु मन्यन्ते प्रज्ञापना मम: पर्यायाने वर्शनना पदयस"