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वर्मग्रन्थ भाग चार
नौ साधुओं का एक गण ( समुदाय ) होता है, जिसमें से चार तपस्वी बनते हैं, चार उनके परिचारक ( सेवक ) और एक वास नाचायें । जो तपस्वी हैं, वे ग्रीष्मकाल में जघन्य एक, मध्यम दो और उत्कृष्ट तीन उपवास करते हैं। शीतकाल में जघन्य दो मध्यम तीन और उत्कृष्ट चार, उपयास करते है । परन्तु वर्षाकाल में जघन्य सोम, मध्यम चार और उत्कृष्ट पाँच, उपवास करते हैं । तपस्वी, पारा के दिन अभिप्रहसहित आय बिल' व्रत करते हैं । यह क्रम छह महीने तक चलता है। दूसरे छह महीनों में पहले के तपस्वी तो परिचारक बनते हैं और परिचारक, तपस्वी ।
दूसरे छह महीने के लिये तपस्वी बने हुये साधुओं की तपस्या का वही क्रम होता है, जो पहले के तपस्वियों की तपस्या का । परन्तु जो साधु परिचारक पद ग्रहण किये हुये होते हैं, वे सदा आयंबिल हो करते हैं। दूसरे छह महीने के बाद तीसरे छह महीने के लिये वाचना चाही तपस्वी बनता है; शेष आठ साधुओं में से कोई एक वाचनाचार्य और बाकी के सब परिचारक होते हैं । इस प्रकार सीसरे छह
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महीने पूर्ण होने के बाद बयारह मास की यह 'परिहारविशुद्ध' नामक तपस्या समाप्त होती है। इसके बाद वे जिनकल्प ग्रहण करते हैं अथवा वे पहले जिस गच्छ के रहे हों, उसी में बाखिल होते हैं या फिर भी बसी हो तपस्या शुरु करते हैं । परिहारविशुद्ध संयम के 'निविशमानक' और 'निविष्टकायिक', ये वो भेव हैं। वर्तमान परिहारfara को 'निविशमानक और भूत परिहारविशुद्ध को 'निविष्टकाकि' कहते हैं ।
(४) जिस सयम में सम्पराय ( कषाय) का उदय सूक्ष्म ( अति
२ – यह एक प्रकार का व्रत है, जिसमें घी, दूध आदि रसको छोड़कर केवल अन्न वाया जाता है। सो भी दिन एक ही दफा पानी इल में गरम पिया जाता है ।
आवश्यक नि० गा० १६०३ - ५ ।
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