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कर्मनन्य भाग भार हैं, जिसको रत्वरसामायिकसयम वाले बड़ी वीभा के रूप में ग्रहण करते हैं। यह संयम, भरत-ऐरवत क्षेत्र में प्रथम तथा परम तीर्थङ्करके साधुओं को होता है और एक तीर्थ के साधु, दूसरे तीर्थ में जब दाखिल होते हैं। जैसे:--श्रीपाश्र्धनाथ के केशीगालय' आदि सान्तानिक हा, भगवान महावीके में खिल हु५; तब उन्हें भी पुनक्षारूप में यही संयम होता है।
(3) परिहार विशुद्धसंघम" वह है, जिसमें 'परिहार विशुद्धि नाम की तपस्या की जाती है । परिहारविशुक्षि तपस्या का विधान संक्षेप में इस प्रकार है:--
१-इस बात का वर्णन भगवतीसूत्र में है।
२-- इस संयम का अधिकार पाने के लिये गृहस्थ पर्याय उम्र) फा जघन्य प्रमाण २१ साल साधु-पर्याय (दीभाकाल) का जघन्य प्रमाण २० साल और दोनों पर्याय का सत्कृष्ट प्रमाण कुछ-कम करोड पुर्व वर्ष माना है। यथा:
"एपस्स एस नेओ, गिहिरिआमो नहनि गणतीसा। जापरियामओ बीसा, वोसुधि उनकोस वे सूणा ।" इस संवर के अधिकारी को साढे नम पूर्व का ज्ञान होता है। यह श्री प्रयसोममूरि ने अपने टबे में निवा है। इसका ग्रहण तीर्थङ्करों क या तीर्थलगे अन्तेवासी के पास माना गया है इस संयम को धारण करने वाले मुनि, दिन के तीसरे प्रहर में निक्षा व विहार कर सकते हैं और अन्य समय में ध्यान, कायोत्सर्ग आदि । परन्तु इस रिपब मे दिगम्बर-शास्त्र का थोड़ा सा मत-भेद है। उसमें तीस वर्ष की उम्रपाले को इस संयम का अधिकारी माना है । अधिकारी के लिये नो पूर्व या ज्ञान आवश्यक बतलाया है । तीर्थकुर के सिवाय और किसी के पास उस संथम के ग्रहण करने की उसमें मनाही है। साथ ही तीन संध्याओं को छोड़कर दिन के किसी भाग में दो कोस तक जाने की उसमें सम्मति है । यथाः
''तीसं वासो अम्मै, वासपुधत्तं न तित्यय रमूले ।। पचरवाणं पढिदो, संसूण लुगाउय बिहारो ॥४७२।।"
जीवकाण्ड ।