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कर्मग्रन्थ भाग नार
जिस समय मिथ्यात्व का उदय हो आता है, उस समय जीव कवाग्रही बन जाता है, जिससे वह किसी विषय का यथार्थ स्वरूप जानने नहीं पाता। उस समय उसका उपयोग--चाहे वह मतिरूप हो, शुतरूप हो या अवधिरूप हो--अज्ञान ( अयथार्थ-जान ) रूप में अवल जाता है। ____ मनःपर्याय और फेवलमान, ये दो उपयोग, मिथ्यात्वो को होते ही नहीं; इससे वे जानरूप ही हैं।
ये पाठ उपयोग, साफार इसलिये कहे जाते हैं कि इनके द्वारा वस्तु के सामान्य-विशेष, समय रूप में से विशेष रूप (विशेष आकार) मुख्यतया जाना जाता है ॥११॥
(८) संयममार्गणा के भेदों का स्वरूपः--
स्थमाइअछेयपरिहार, सुहमअहखायदेसजवअजया। चक्नुअचखूओही, वलसाण अणागारा॥ १२ ॥ सामायिकच्छदपरिहारमूक्ष्मयथाख्यातदेशयतायता नि । चक्षुरचक्षुरवधिकंवलदशनान्यनाकाराणि ॥ १२ ।।
अर्थ--सामायिक, छेवोपस्थापमोय, परिहारविशुख, सूक्ष्मसम्यराय, यथाख्यरत, देशविरति और अविरति, ये सात मेव संयममार्गणा के हैं । चक्षुदर्शन, अचक्षुर्वर्शन, अवधिवर्शन और केवलबर्शन, ये चार उपयोग अनाकार हैं ॥ १२ ॥
भावार्थ---(१) जिस संयम में समभाव को (राग-द्वेष के अभाष की) प्राप्ति हो, वह 'सामायिकसंयम, है । इसके (क) 'इत्वर' और (ख) 'पावस्कथित' ये वो मेद है।
( क ) 'इत्सरसामापिकसंयम' वह है, जो अभ्यासार्यों शिष्योंको स्थिरता प्राप्त करने के लिय पहले-पहल दिया जाता है और