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कर्मग्रन्थ माग चार
(३) 'माया' उसे कहते हैं, जिससे, छल-कपट में प्रवृत्ति होती है । (४) 'लोभ' ममश्वको कहते हैं ।
(७) ज्ञानमार्गणा के भेदों का स्वरूपः
(१) जो ज्ञान इन्द्रिय के तथा मन के द्वारा होता और श्रो बहुतकर वर्तमानकालिक विषयों को जानता है, वह 'मतिज्ञान है । (२) जो शाम श्रुतानुसारी है— जिसमें शब्द अर्थ का सम्बन्ध मासित होता है--और जो मतिज्ञान के बाद होता है; जैसे- 'जल' Tea सुनकर यह जानना कि यह शब्द पानी का बोधक है अथवा पानी देखकर यह विचारना कि यह 'जल' शब्द का अर्थ है, इस प्रकार उसके सम्बन्ध को अन्य अन्य बातों का विचार करना, वह '' है। (३) 'अवधिज्ञान' वह है, जो इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना ही उत्पन्न होता है जिसके होने में आत्मा की विशिष्ट योग्यता मात्र अपेक्षित है और जो रूप वाले विषयों को ही जानता है । ( ४ ) 'मन: पर्यायज्ञान' यह है, जो संज्ञी जोवों के मन की अवस्थाओं को जानता है और जिसके होने में आत्मा के विशिष्ट क्षयोपशममात्र की अपेक्षा है, इन्द्रिय-मन की नहीं । (५) केवलज्ञान' उत ज्ञान को कहते हैं, जिनसे कालिक सब वस्तुएं जानी जाती है और जो परिपूर्ण स्थात्री तथा स्वतन्त्र है । (६) विपरीत मतिउपयोग, 'मति अज्ञान' है; जैसे:-घट आदि को एकान्न सद्रूप मानना अर्थात् यह मानना कि वह किसी अपेक्षा से असद्रूप नहीं है। (७) विपरीत भूत- उपयोग 'भूत अज्ञान' है; जैसे:- 'हरि' आदि किसी शब्द को सुनकर यह निश्चय करना कि इसका अर्थ सिह है, दूसरा अर्थ हो ही नहीं सकता, इत्यादि । ( 5 ) विपरीत अवधि - उपयोग ही 'विज्ञान' है। कहा जाता है कि शिवराजति को ऐसा ज्ञान था; क्योंकि उन्होंने सात द्वीप तथा सात समुद्र देखकर उतने में ही सब द्वीप समुद्र का निश्चय किया था ।