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कर्मग्रन्थ भाग चार
जिसकी कालमर्यादा उपस्थापन पर्यंत बड़ा दीक्षा लेने तक - मानी गई है। यह संयम भरत ऐरवत क्षेत्र में प्रथम तथा अन्तिम तीथंजूर के शासन के समय ग्रहण किया जाता है। इसके धारण करने वालों को प्रतिक्रमण सहित पांच महाव्रत अङ्गीकार करने पड़ते हैं तथा इस संयम के स्वामी 'स्त्रितकल्पी" होते हैं ।
( ख ) यावत्कथित सामायिकसंगम वह है, जो ग्रहण करने के समय से जीवनपर्यन्त पाला जाता है । ऐसा संयम ऐरवत क्षेत्रमें मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों के शासन में ग्रहण किया जाता है पर महावियेहक्षेत्र में तो यह संघम सब में दिल शाहा है। संयम के धारण करने वालों को महाव्रत चार और कल्प स्थितास्थित होता है ।
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( २ ) प्रथम संयम पर्याय की बकर फिर से उपस्थापन (व्रतारोपण ) करना – पहले जितने समय तक संयम का पालन किया हो, उतने समय को व्यवहार में न गिनना और दुबारा संयम ग्रहण करने के समय से वीक्षाकाल गिनना व छोटे-बड़े का व्यवहार करना--- छेत्रोंस्थानीयसंयम है। इसके (क) 'सातिवार और (ख) निरतिचार, ये वो सेव हैं।
( क ) सातिचार छेदोपस्थापनीय संग्रम' वह है, जो किसी कारण से मूलगुणों का महाव्रतों का भङ्ग हो जाने पर फिर से ग्रहण किया जाता है ।
(ख) निरतिचार-छेदोपस्थापनीय' उस संयम को कहते
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१ – आचेलक्य, औद्दे शिक सस्थातरपिष्ड, राजभिण्ड, कृतिकर्म, व्रत, उपेष्ठ, प्रतिक्रमण, माम और पर्युपणा, वन दम कल्पों में जो स्थित हैं, वे 'स्थितकल्पी' और शय्यातर पिण्ड व्रत, ज्येष्ठ तथा कृतिकर्म, इन चार में नियम से स्थित और शेष छह कल्पो में जो अस्थित होते हैं, वे स्थितास्थित कल्परी' कहे जाते हैं ।
० हारिभद्री वृत्ति, पृ० ७६०, पञ्चाशक, प्रकरण १७ १