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कर्मग्रन्थ भाप चार
मार्गणास्थान के अवान्तर (विशेष) भेद ।।
। चार गाथाओं से । ] सुरनर तिरिनिरयमई, इगनियतियचउणिदि छकाया। भूजलजलणानिलकण, तसा य मणक्यणतणुजोगा |१०|| गुरनरयिं इनिरयगति रेकतिकनिकचतुष्पञ्चेन्द्रियाणि प्रकायाः । भूजन ज्वलनानिग्न वन समाश्च मनोम चनतनुयोगाः ॥ १० ॥
अर्थ-देष, मनुष्य, तियंञ्च और नरक, ये चार गतियां हैं। एकेन्द्रिय, होन्द्रिय, श्रीप्रिय, चरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय, ये पाच इन्द्रिय हैं । पृथ्वीकाय, जलकाय, वायुकाम, अग्निकाय, वनस्पतिकाय और उसकाय, ये छह काय हैं । मनोयोग, पचनयोग और काययोग, ये तीन योग हैं ।। १० ।।
(१)--गतिमार्गणा के भेदों का स्वरूरः
भावार्थ-- १ ) देवगसिनामकर्म के उदय से होने वाला पर्याय (शरीर का विशिष्ट आकार), जिससे यह वेब' है, ऐसा व्यवहार किया जाता है, यह 'वेवगति' । (२) 'यह मनुष्य है,' ऐसा व्यवहार करानेपाला जो मनुष्यगतिनाम कर्म के उवय-जन्य पर्याय, वह 'मनुष्यगति' । (३) मिस पर्याय से जीय तिर्यञ्च' कहलाता है और जो तिर्यञ्चतिमामकर्म के उचय से होता है, वह 'तिर्ययाति' । (४) जिस पर्याय को पाकर जीय, 'नारक' कहा जाता है और जिसका कारण मरगति. मामकर्म का उदप है, वह 'नरफगति' है ।
गोकम्मरम्महारो, कवालाहारो प लेपमाहारो। ओजमणो वि य कमसो, आहारो विहो यो ।।" -~-प्रमेयकमलमार्तण्ड के द्वियीय परिच्छेद में प्रमाण रूप से उद्धप्त ।