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गर्म
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मुख्यतथा अन्तर्मुख भीतर की ओर ) हो जाती है। तस्व-राधि, इसी परिणाम का पाल हैं। प्रशम, संवेग, निवेद, अनुकम्पा और प्रास्तिकता, ये पांच लक्षण प्रायः सम्यक्री में पाये जाते हैं।
१३) संश्रिय-धोघंकालिको संझा को प्राप्ति को 'संमित्व कहते हैं।
(१४) आहारकरव -किसी-न-किसी प्रकार के आहार' को प्रण करना, 'आहारकत्व है।
मूल प्रत्येक मार्गणा में सम्पूर्ण संसारी जीवों का समावेश होता है ।।१।।
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१- यही बात भट्टारका पीअकालदेवने कही है:"तस्मात् सम्यग्दर्शनमात्मपरिणामः श्रेयोभिमुखमध्ययस्यामः"
– तत्वा अ० १, सू० २, रान० १६ । 5-आहार नीन प्रकार वा है:-। ओज-आहार, (२) लोभआहार और (३) कवल-आहार । इनका लक्षण इस प्रकार है:--
"सरीरेणीयाहारी. तपाइ फासेण लोम आहारो।
पक्खे पाहारो पुण, कलियो होइ नामको।" गर्भ में उत्पन्न होने के समय जो शुक्र-शोणितरूप आहार, कार्मणशरीर के द्वारा लिया जाता है. वह ओज, वायु का स्वगिद्रिय द्वारा जो ग्रहण किया जाता है, यह लोभ और जो अन्न आदि खाद्य, मुख द्वारा ग्रहण किया जाता है, वह कवल-आहार है।
आहार का स्वरूप गोम्मटसार-जीवकाण्ड में इस प्रकार है:
"उदयावष्णसरी रो,-बयेण तहहबयणाचित्ताणं ।
गोकम्मवगणाणं, गहणे आहारयं नाम ॥६६३॥ शारीरनामकर्म के उदय से देह, वचन और दध्यमा के बनने योग्य नोकर्म-वर्गणाओं का जो ग्रहण होता है, उसाको 'आहार' कहते हैं।
दिगम्बर-साहित्य में आहार के छह भेद किये हुये मिलते हैं । यथा:--