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कर्म ग्रन्थ भाग चार
काले-पीले आदि विषयों का ज्ञान होता है और जो अङ्गोपाङ्ग तथा निर्माण नामकर्म के उवय से प्राप्त होते हैं, वे 'इन्द्रिय' हैं।
(३) काम – जिसकी रचना और वृधि यथायोग्य औवारिक, बक्रिय आदि पुग्ल-स्कन्यों होती है और जो करनाNE उवय से बनता है, उसे 'काय' ( शरीर ) कहते हैं।
(४) योग--वीर्य-शक्ति के जिस परिस्पद से - आरिमक-प्रदेशोंको हस-मल से-गमन, भोजन आदि क्रियायें होती हैं और मो परिस्पन्व, शरीर, भाषा तथा ममोवर्गणा के पुग्लों की सहायता से होता है. वह 'योग' है।
( ५ ) वेद-संभोग-अन्य सुख के अनुभव की इसछा, जो वेवमोहनीयकर्म के उदय से होती है, वह 'द' है।
(६ ) कषाय--किसी पर भासक्त होना या किसी से माराम हो जाना, इत्यादि मानसिक-विकार, प्रो संसार-वृद्धि के कारण है और जो कषायमोहनीय फर्म के उवय-जन्य हैं, उनको 'काम' कहते हैं।
(७) जाम-किसी वस्तु को विशेष रूप से सामने वाला चेतनाशक्ति का व्यापार ( उपयोग ), 'ज्ञान' कहलाता है।
() संयम-कर्मबन्ध-जनक प्रवृत्ति से अलग हो जाना, 'संगम' कहलाता है ।
(६) दर्शन--विषय को सामान्य रूप से जानने वाला चेतनाशक्ति का उपयोग 'दर्शन' है।
(१०) लेश्या - आश्मा के साथ कर्म का मेल कराने वाले परिणामविशेष लक्ष्या' हैं।
( ११ ) मध्यस्व-मोक्ष पाने की योग्यता को 'भन्यत्व' कहते हैं।
(१२ ) सम्पपरव-आत्मा के बस परिणाम को सम्यक्रम कहते हैं, को मोक्ष का अविरोषी है-जिसके व्यक्त होते ही मारमा की प्रवृत्ति,