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कर्मग्रन्थ भाग चार
(२}--इन्द्रियमाणा के भेदों का स्वरूपः----
(१) निस जाति में सिर्फ स्वचा इन्द्रिय पायी जाती है और जो जाति, एफेन्द्रियजातिनामकर्म के उदय से प्राप्त होती है, वह 'एफेन्द्रियजाति । ( २ ) जिस जाति में छो इग्नियां (त्वचा, जीम) हैं
और जो द्वीन्द्रियजालिनामकर्म के उदय-जन्म है, बाह 'दीन्द्रियजाति' । ( ३ ) जिस जाति में इन्नि यो नीन (उक्त दो तमा नाक) होती हैं और श्रीन्द्रियजातिनामकर्म का उपय जिसका कारण है, वह 'श्रीन्द्रियजाति' । ; ) प्रदिपजाति मन्द्रियाँ चार । उक्त तौन तथा नेत्र ) होती हैं और जिसकी प्राप्ति चतुरिन्द्रियजालिनामकर्म के उदय से होती है । ( ५ ) पञ्चेन्द्रियजाति में उक्त धार और कान, ये पाँच इन्द्रियाँ होती हैं और उसके होने में निमित्त पञ्चे. द्रियजातिनामकर्म का उदय है ।
(३)---कायमार्गणा के भेदों का स्वरूप:
(१) पार्थिव शरीर, जो पृथ्वी का बनता है, यह 'पृथ्वीकाय' । ( २ ) जलीय शरीर, जो जससे बनता है, वह 'जलकाय' । ( ३ ) तंजसशरीर, जो तेजका बनता है, वह 'लेज काय' । (४) वायवीय शरीर, जो वायु-जन्य है, वह वायफाय 1 (५) बनस्पतिशरीर, जो वनस्पतिमय है, वह 'वनस्पतिकाय' है । ये पाँच काय, स्थावर नामकर्म के उसम से होते हैं और इनके स्वामी पृथ्वीकापिक आदि एकेन्द्रिय जीव है । । ६ ) जो शरीर अल-फिर सकता है और जो प्रसनामकर्म के बय से प्राप्त होता है, यह 'सकाय' है । इसके धारण करने वाले द्वीन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय तक सब प्रकार के जीत हैं।
(४)- योगमार्गणा के मेदों का स्वरूप:-- {१) जीव का बह व्यापार 'मनोयोग' है, जो औवारिक, वैक्रिय १-देखिये, परिशिष्ट "ज ।"